माँ मुझे बचपन में मेरी उम्र के हिसाब से कुछ ज्यादा ही रोटियां दिया करती थीं. इंटरवल में सारे बच्चे जल्दी जल्दी खाना ख़त्म करके खेलने चले जाते थे. और मै अपना खाना ख़त्म नहीं कर पता था. तो डब्बे में हमेशा ही कुछ न कुछ बच जाता था, और मुझे रोज़ डांट पड़ती थी. मेरी बहन भी घर आ के शिकायत करती थी कि उसे छोड़ के इंटरवल में मै खेलने भाग जाता हूँ.
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एक दिन मेरी बहन मेरे साथ स्कूल नहीं गई. मै ख़ुशी ख़ुशी घर आया और माँ को बताया की मैंने आज पूरा खाना खाया है. माँ को यकीन नहीं हुआ, उन्होंने…
ContinueAdded by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 20, 2012 at 4:00pm — 20 Comments
मै भी लड़ना चाहती हूँ! मुझे लड़ने दो!
हार का मै स्वाद चखना चाहती हूँ.
जीत का अभ्यास करना चाहती हूँ.
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प्रेयसी बन बन के हो गई हूँ बोर!
मै नए किरदार बनना चाहती हूँ.
मै भी जिम्मेदार बनना चाहती हूँ.
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सीता-गीता मेरे अब नाम मत रखो!
धनुष का मै तीर बनाना चाहती हूँ,
गरल पीकर रूद्र बनना चाहती हूँ.
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अपने पास ही रखो हमदर्दी अपनी!
खड़े होकर सफ़र करना चाहती हूँ,
'बसो' का मै ड्राइवर बनना चाहती हूँ.
मै…
ContinueAdded by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 12, 2012 at 11:03am — 10 Comments
हम पंछी एक डाल के
Disclaimer:यह कहानी किसी भी धर्म या जाती को उंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं लिखी है, यह बस विषम परिस्थितियों में मानवी भूलों एवं संदेहों को उजागर करने के उद्देश्य से लिखा है. धन्यवाद.…
ContinueAdded by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 6, 2012 at 10:00am — 19 Comments
मेरे बचपन के एक मित्र के बड़े भैया पढ़ने में बड़े तेज़ थे, और पूरे मोहल्ले में अपनी आज्ञाकारिता और गंभीरता के लिए प्रसिद्ध थे. भैया हम लोगो से करीब 5 साल बड़े थे तो हमारे लिए उनका व्यक्तित्व एक मिसाल था, और जब भी हमारी बदमाशियो के कारण खिचाई होती थी तो उनका उदहारण सामने जरूर लाया जाता था. सभी माएं अपने बच्चो से कहती थी की कितना 'सीधा लड़का' है. माँ बाप की हर बात मानता है. कभी उसे भी पिक्चर जाते हुए देखा है?
मेधावी तो थे ही, एक बार में ही रूरकी विश्वविद्यालय में इन्जिनेअरिंग में…
ContinueAdded by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 2, 2012 at 12:30pm — 18 Comments
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