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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog – April 2014 Archive (4)

कविता : पूँजीवादी मशीनरी का पुर्ज़ा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ

मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने

मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था

इसलिए फ़ौरन सुनहरे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2014 at 11:30am — 16 Comments

ग़ज़ल : तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है

तभी जाके ग़ज़ल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 17, 2014 at 5:30pm — 34 Comments

ग़ज़ल : ढंग अलग हो करने का

बह्र : २२ २२ २२ २

जीने का या मरने का
ढंग अलग हो करने का

सबका मूल्य बढ़ा लेकिन
भाव गिर गया धरने का

आज बड़े खुश मंत्री जी
मौका मिला मुकरने का

सिर्फ़ वोट देने भर से
कुछ भी नहीं सुधरने का

कूदो, मर जाओ `सज्जन'
नाम तो बिगड़े झरने का
-
(मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 15, 2014 at 10:30am — 14 Comments

कविता : पूँजीवादी ईश्वर

फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य,…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2014 at 10:30am — 26 Comments

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