बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२
जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे
लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे
बिना बुलाए द्वार किसी के क्यूँ जाएँ हम
ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे
कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी
बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे
चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को
अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे
काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना
जिनको जल्दी जाना ही है, वो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:30am — 14 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २
जीवन में कुछ बन पाते
हम इतने चालाक न थे
सच तो इक सा रहता है
मैं बोलूँ या वो बोले
पेट भरा था हम सबका
भूख समझ पाते कैसे
हारेंगे मज़लूम सदा
ये जीते या वो जीते
देख तुझे जीता हूँ मैं
मर जाता हूँ देख तुझे
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 18, 2015 at 4:49pm — 20 Comments
इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब
दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब
पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब
फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब
महलों की चमचागीरी में जुटे रहें हरदम
डीयम-वीयम, यसपी-वसपी, जनरल-वनरल सब
समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे
ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब
कंकरीट का राक्षस धीरे धीरे खाएगा
बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब
जो न बिकेंगे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 12, 2015 at 1:19pm — 18 Comments
चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार, गई
टेढ़े चाल चलन के
उस पर थे
इल्ज़ाम लगे
उसकी गति में
थी जो बिजली
उसके दाम लगे
पत्थर के आगे
मिन्नत सब
हो बेकार गई
टूटी लहरें
छूटी कल कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर
पर्तों में बदली
सदा स्वस्थ
रहने वाली
होकर बीमार…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2015 at 1:44pm — 28 Comments
बह्र : 221 2121 1221 212
रोटी की रेडियस, जो तिहाई हुई, तो है
पूँजी की ग्रोथ रेट सवाई हुई तो है
अपना भी घर जला है तो अब चीखने लगे
ये आग आप ही की लगाई हुई तो है
बारिश के इंतजार में सदियाँ गुज़र गईं
महलों के आसपास खुदाई हुई तो है
खाली भले है पेट मगर ये भी देखिए
छाती हवा से हम ने फुलाई हुई तो है
क्यूँ दर्द बढ़ रहा है मेरा, न्याय ने दवा
ज़ख़्मों के आस पास लगाई हुई तो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2015 at 11:52am — 20 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है
वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है
सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है
चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो
देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है
खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब
इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है
छोड़ रवायत भेद सभी का खोल…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2015 at 12:21pm — 17 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन
पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन
उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन
अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन
उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन
जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन
पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन
पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन
मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2015 at 12:36pm — 23 Comments
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