ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
दिल दिल्ली का बहुत बड़ा, पाषाण हृदय है बहुत कड़ा।
(फिर भी) ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
ना कोई चिन्ता ना ग्लानि, ना करुणावश बिलखानी
नीति नैतिकता के ह्रास पर,अनामिका की लाश पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
बिसर गए कर्तव्यों पर, दिशाहीन वक्तव्यों पर,…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 23, 2013 at 11:30am — 10 Comments
स्वतंत्रता के 66 वर्ष बाद, जन सामान्य को क्या मिला? आज भी सोने की चिड़िया के बचेखुचे पंख, भक्षक बन कर रक्षक ही नोच रहे हैं, अल्पसंख्यकों का एक वर्ग असुरक्षा के नाम पर बहुसंख्यकों पर अविश्वास कर रहा है- राजनेताओं की दादुरनिष्ठाओं से सभी हतप्रभ हैं: - संस्कारहीन समाज अपनी दिशाहीन यात्रा के उन मील के पत्थरों पर नाज कर रहा है जिनके नीचे शोषितों की आहें दफन हैं। ऐसे में, भारतीय लोकतन्त्र का चेहरा किस स्वर्णिम आभा से चमक…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 18, 2013 at 1:30pm — 6 Comments
(दशकों पहले आदिल लुख्नवी की एक रचना ‘दुम’ पढने में आयी थी, उससे प्रेरित हो कर 1986 में ये रचना की. वैसे आदिल जी की रचना भी अंतर्जाल पर उपलब्ध है. आशा है, सुधी जनो को ये प्रयास भी नाकारा तो नहीं लगेगा. ये भी मेरे पूर्व प्रस्तुतियों की भांति अप्रकाशित रचना है)
दुम
कुदरत की नायाब कारीगरी है…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 15, 2013 at 6:30pm — 9 Comments
चैत्र पवित्र नवरात्री , साल नया ये खास.
गुडी पडवा में नींव पड़े, चहुंदिश सुख की आस.
सुख दुख गतिक्रम सृष्टि का, चले सनातन चक्र.
किसी…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 11, 2013 at 6:00am — 4 Comments
मन की
विभिन्न चेष्टाओं के
फिसलने धरातल पर
असंख्य आवर्तन
धकेलती कुण्ठाओं के.
पूर्वजों से
अर्जित संस्कारों का क्षय
आत्मघाती विचारों का
प्रस्फुटन और लय.
क्षितिज अवसादों के,
दिखाते शिथिल आयामों की
सूनी डगर
टूटते स्वप्नों पर
पथराई नजर.
उभरती शंकाएं, विचलित श्रद्धाएं.
हाहाकार करते, प्रश्रय खोजते
थके हारे प्रयास
अनन्त शून्य की अनन्त यात्रा
भय से…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 9, 2013 at 2:30pm — 11 Comments
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