Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 24, 2013 at 9:00pm — 5 Comments
जब नयन गुनगुना हो गया
तो सृजन गुनगुना हो गया
रूप की धूप में बैठकर
ये बदन गुनगुना हो गया
तेरी यादों की भट्ठी जली
मेरा मन गुनगुना हो गया
उसने डुबकी लगाई कहीं
आचमन गुनगुना हो गया
नर्म होंठों पे जुंबिश हुई
हरिभजन गुनगुना हो गया
थामकर हाथ हम चल पड़े
पर्यटन गुनगुना हो गया
उनके आने की आहट हुई
अंजुमन गुनगुना हो गया
साँस ने साँस को आग…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 22, 2013 at 1:33am — 4 Comments
क्षणिका : नीम चढ़ा करेला
नीम चढ़ा करेला
सेहत के लिए सबसे अच्छा होता है
लेकिन चर्बी को सेहत मानने वाले समाज में
ये कहीं नहीं बिकता
क्षणिका : हवा की तरह
मुझसे प्रेम करो हवा की तरह
ताकि तुम्हारा हर एक अणु
मेरे जिस्म के हर बिन्दु से टकराये
और तुमसे दूर होते ही
मेरी नसों में बह रहा लहू
मुझे फाड़कर रख दे
क्षणिका : विकास
चिकित्सा कम कर देती है…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 5, 2013 at 9:06am — 8 Comments
बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत, जग को जंग, दगा को दंगा
मद को मंद, मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश, बजर को बंजर
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए
केवल लंबाई होती है रेखा में
चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 3, 2013 at 7:55pm — 12 Comments
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