कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .
वोह जिसके दम से उजाला है मेरी आँखों में ,
उस्सी की आज कमी है गरीब खाने में .
मेरे नसीब में लिखी है ठोकरे शयेद ,
जो भूल बैठा हूँ तुझको भी इस ज़माने में .
समझ रहा था जिसे मै गरीब परवर है ,
उस्सी ने आग लगे है आशियाने में .
हटा जो मर्कज़े हस्ती से देखीय "रिज़वान",
भटक रहा है वही दरबदर ज़माने में .
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 17, 2012 at 10:00pm — 8 Comments
मंजिले ऊँची बनाना आज की तामीर है ,
इस सदी की दोस्तों कितनी अजब तस्वीर है ...
ये है कंप्यूटर सदी यानि ज़माना है नया ,
कितनी आसानी से बदली जा रही तस्वीर है ...
क्या कटेगी ज़िन्दगी अपनों की मोबाईल बगैर ,
ये हमारे दौर की मुंह …
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 7, 2012 at 11:30am — 11 Comments
न जाने क्यूँ किसी को खल रहा हूँ ,
मै अपनी रह गुज़र पर चल रहा हूँ ....
दीया हूँ हौसलों का इसलिए मै ,
मुकाबिल आँधियों के जल रहा हूँ ....
मै तेरे नाम की शोहरत हूँ शाएद ,
इसी बयेस सभी को खल रहा हूँ .....
मुझे तू याद रखे या भुला दे ,
मै तेरी याद में हर पल रहा हूँ ....…
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 5, 2012 at 12:30pm — 17 Comments
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