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चाहे ग़ालिब, या फिर शकील आये
गलतियाँ कर.., अगर दलील आये
मिसरे मेरे भी ठीक हो जायें
साथ गर आप सा वक़ील आये
ख़ुद ही मुंसिफ हैं अपने ज़ुर्मों के
और अब खुद ही बन वक़ील आये
भीड़ में पागलों की घुसना क्यों ?
हो के आखिर न तुम ज़लील आये
ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी
जाने क्या सोच कर ये चील आये
आग-पानी सी दुश्मनी रख कर
बह के पानी सा, बन ख़लील…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 11, 2017 at 8:30am — 6 Comments
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