बह्र-ए-मीर पर आधारित ग़ज़ल
कमबख्त कहाँ से आये इतनी रात गये
उनकी यादों के साये इतनी रात गये
आज उभर के आया है इक दर्द पुराना
बेलौस हवा सहलाये इतनी रात गये
कश्ती कागज की गहरे यादों के दरिया
अब नींद कहाँ से आये इतनी रात गये
गीली मिटटी की सौंधी सौंधी सी खुशबू
अंतस में आग लगाये इतनी रात गये
किस प्रियतम के लिए हुआ बैचैन पपीहा
जो घड़ी घड़ी चिल्लाये इतनी रात गये
दूर उफ़क़ से आती हैं ग़मगीन…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 1, 2018 at 4:30pm — 8 Comments
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