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Shashi Mehra's Blog – July 2011 Archive (17)

शोर-ए-दिल

वो मेरे पास, जाने क्यूँ, दबे-पाँव से आते हैं |

यही अंदाज़ हैं उनके, जो मेरा दिल, चुराते हैं ||



वो जब पहलू बदलते हैं, कभी बातों ही बातों में |

मुझे महसूस होता है, की वो कुछ कहना चाहते हैं ||



इरादा जब भी करता हूँ, मैं हाल-ए-दिल सुनाने का |…

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Added by Shashi Mehra on July 20, 2011 at 8:30pm — 1 Comment

फिल्म दलदल के लिए प्रस्तावित गजल /कव्वाली

ख़ुशी से कौन, लुटने के लिए, बाज़ार आता है |



यकीं कर लो जो आता है, वो हो लाचार आता है ||
खुद लुट चुकी हूँ लेकिन, खुशियाँ लुटा रही हूँ |
बिजली गिरी थी मुझ पे, सो जगमगा रही हूँ ||
बचपन से आजतक का, हर पल है यद् मुझको |   
अपनों ने ही किया है, लोगो,…
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Added by Shashi Mehra on July 19, 2011 at 1:20pm — No Comments

chitr se kavy tak ank 4

जिन्हें, लोग कहते, किसान हैं |

वो, खुदा समान, महान हैं ||

वो ही, पैदा करते हैं, फसल को |

वो ही, जिन्दां रखते हैं, नस्ल को ||

वो तो, ज़िन्दगी करें, दान है |

जिन्हें, लोग कहते, किसान हैं ||

उन्हें, अपने काम से काम है |

वो कहें, आराम , हराम है ||

वो असल में, अल्लाह की शान हैं |

जिन्हें, लोग कहते, किसान हैं ||

जिन्हें, बस ज़मीन से, प्यार है |

करें जाँ, ज़मीं पे, निसार हैं ||

वो तो, सब्र-ओ-शुक्र की, खान हैं |

जिन्हें, लोग कहते,…

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Added by Shashi Mehra on July 19, 2011 at 10:00am — No Comments

.चित्र से काव्य तक अंक ४ से

लिखे, आत्म-कथा, जो किसान है |



वही गीता, वही  कुरान है ||
जिसे पढ़ के, दिल मजबूत हो |
ये वो वेद  है, वो पुराण है ||
इसे सुब्ह-शाम  की,फ़िक्र न |
ज़मीं खाट, छत आसमान है || 
रहे मस्त अपनी ही, धुन में ये…
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Added by Shashi Mehra on July 19, 2011 at 9:18am — No Comments

वलवले

यह जो ज़िन्दगी की किताब है |
यह अजीब है, यह अज़ाब है ||
कभी खुश्क सहरा को, मात दे |
कभी खूब तेज़, सैलाब है ||
कभी दिन को, तारे दिखाई दें |
कभी शब् को, आफताब है ||
यह किसी पहेली से कम नहीं |
यह तो ला-जवाब हिसाब है ||
'शशि' याद रखना, यह फलसफा |
यहाँ नेकी करना, सबाब है ||

Added by Shashi Mehra on July 19, 2011 at 8:42am — 2 Comments

चित्र से काव्य तक no. 4 k liye preshit

चित्र से काव्य तक
जहाँ को जिसने बनाया, खुदा है, दाता है |
किसान खल्क-ए-खुदाई का, अन्न-दाता है ||
बहा के खून-पसीना, जो अन्न उगाता है |
सुना है,खुद वो कभी, पेट भर न खाता है ||
उम्र भर, जिसका रहे, गुर्बतों से नाता है |
वो सब्र-ओ-शुक्र, न जाने, कहाँ से पाता है ||
अजीब बात है, मुश्किल में, मुस्कराता है |
'शशि' सलाम, करे उसको, सर झुकाता है ||

Added by Shashi Mehra on July 17, 2011 at 9:21pm — No Comments

chitr se kavy tak ki oratiyogyta no 4 k liye preshit

तरक्की जिसको कहते हैं, हुई है बस फसानों में |

हकीकत देख लो जाकर के, गावों में, किसानों में ||

किसी हसरत को, दिल में सर, उठाने वो नहीं देते |

जुबां से बदनसीबी के, उलाहने वो नहीं देते ||

ख़ुशी वो ढूंढ़ लेते हैं, वैसाखी के तरानों में |

हकीकत देख लो जाकर के, गावों में, किसानों में ||

है, पूजा काम करना, वो ज़माने को, सिखाते हैं |

उमीदों के भरोसे ही, ज़मीं पे हल चलाते हैं ||

उन्हें मालूम है, जो फर्क है, वादों-बयानों में ||

हकीकत देख लो जाकर के, गावों में,… Continue

Added by Shashi Mehra on July 17, 2011 at 9:16pm — No Comments

शोर-ए दिल

वो लोगों के, दिलों में, झांकता है | 

वो कुछ, ज्यादा ही लम्बी, हांकता है ||



चला रहता है, वो कुछ खोजने को |
वो नाहक, धूल-मिटटी, फांकता है ||


न जाने, किस…
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Added by Shashi Mehra on July 14, 2011 at 10:00am — No Comments

शोर-ए-दिल

नई अदा से, मुहब्बत, जता रहा है कोई |

उन्हीं से उनके लिए, ख़त लिखा रहा है कोई ||


कहा गया न, जुबां से, जो रूबरू उनके |
बिठा के पास उन्हें, सब सुना रहा है कोई ||


वो पूछते भी हैं, उल्झा के, बातों-बातों…
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Added by Shashi Mehra on July 13, 2011 at 12:30pm — 1 Comment

शोर-ए-दिल

तिनका हूँ, शहतीर नहीं हूँ | 

ज़िन्दां हूँ, तस्वीर नहीं हूँ ||



टूट रहा हूँ, धीरे-धीरे |
मैं पुख्ता, तामीर नहीं हूँ ||


हैरत से, मत देखो मुझको |…
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Added by Shashi Mehra on July 13, 2011 at 9:30am — No Comments

शोर-ए-दिल

बन्दा हूँ, भगवान नहीं हूँ |

पत्थर का इंसान नहीं हूँ ||


वक़्त के साथ, बदल सकता हूँ |
कोई वेद-पुरान नहीं हूँ ||


मैं भी गलती कर सकता हूँ |
धर्म नहीं हूँ,…
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Added by Shashi Mehra on July 12, 2011 at 6:00pm — 2 Comments

शोर-ए-दिल

इब्तदा थी मैं, इन्तहां समझा |
एक गुलचीं को, बागवान समझा ||
भूल कह लो, इसे या नादानी |
बेरहम को,था मेहरबाँ समझा ||
ज़हन में, इतने चेहरे, बसते हैं |
मैंने खुद को ही, कारवाँ समझा ||
खुद फरेबी में, ज़िन्दगी गुजरी |  

झूठ को, सच सदा, यहाँ समझा ||
कोई मकसद नहीं है, जीने का |
बाद सब कुछ, 'शशि' गँवा समझा ||

Added by Shashi Mehra on July 11, 2011 at 8:03pm — 1 Comment

शोर-ए-दिल

उनकी ज़फ़ा का हमको, क्यूँ ऐतबार आये |

वो आज-कल खफा हैं, दिल कैसे मान जाए ||

माना की आज-कल वो, कुछ दूर हो गए हैं |

हम जानतें हैं की वो, मजबूर हो गए हैं ||

रुसवाइयों के डर से, वो रुख को है छुपाये | वो आज-कल खफा हैं

जो दिल तड़प रहा है, वो ज़रूर होंगे गम में |

जो समझ रहें हैं हमको, वो ज़रूर होंगें हममें ||

साए में आँसुओं के, हम कैसे मुस्कराएँ | वो आज-कल खफा हैं

ऐ दिल उदास न हो, अभी कुछ हुआ नहीं है |

क्यूँ कर रहा यकीं है, असर-ए-दुआ दुआ नहीं है ||

कुछ… Continue

Added by Shashi Mehra on July 11, 2011 at 10:11am — 1 Comment

ग़ज़ल

बातइतनी समझ में आई है |
झूठ ही आजकल सच्चाई है ||


सब में जलवा-नुमाँ, खुदा खुद है |
दहर है, ये जगह खुदाई है ||


हया,वफ़ा हैं किताबों में, इसलिए हर सू |
बे-हयाई है, बे-वफाई है ||


दावा बेकार है, किसी शेय पर |
सोच तक तो, यहाँ पराई है ||


जाँचना मत जहां में रिश्ते |
जिसने जांचे हैं, चोट खाई है ||


खेल ज़ारी है, जिंदगानी का |
जीत हारी है,मात पाई है ||

Added by Shashi Mehra on July 10, 2011 at 11:30am — No Comments

वलवले

किये अपने पे, पछताता बहुत है |
तड़पता है, जो तड़पाता बहुत है ||
वो महफ़िल में, भी समझे, खुद को तंहा |
हो तन्हाई तो, घबराता बहुत है ||
कहे न, हाल के बारे में, कुछ भी |
सिर्फ माझी को, दोहराता बहत है ||
दिखावे के लिए है, मुस्कराता |
वो दिल ही दिल में, गम खाता बहुत है ||
किनारा कर लिया अपनों से उसने |
उसे खुद पर, तरस आता बहुत है ||
वो अब गैरों में अपने ढूंढ़ता है |
'शशि' के पास वो आता बहुत है ||

Added by Shashi Mehra on July 9, 2011 at 12:16pm — No Comments

शोर-ए-दिल

यह चक्कर क्या है, कि चक्कर समय का |

चला रहता है, यह थमता नहीं है ||



बुढापा इस कदर, हावी हुआ है |

जो पच जाता था, अब पचता नहीं है ||



मेरे ज़ख्मों पे, मरहम मत लगाओ |

अब इससे भी तो, कुछ बनता नहीं है ||



बहुत मांगीं दुआएँ, थक गया हूँ |

दुआओं में असर, लगता नहीं है ||



वो, है तो साँप, पर आदत है उसकी |

डराता है सिर्फ, डंसता नहीं है ||



हमें लगता था, कि वह हस रहा है |

अस्ल मैं जो कभी, हँसता नहीं है…

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Added by Shashi Mehra on July 9, 2011 at 10:30am — 1 Comment

अपनी लिखी पुस्तक शोर-ऐ-दिल से

अब मेरी आँख मैं, आँसू नहीं आने वाले |

लाख जी भर के, सता लें ये ज़माने वाले ||

अब तो शायद ही, किसी बात पे रोना आये |

हादसे इतने हुए, मुझको रुलाने वाले ||

जानता हूँ की नहीं लौट के, फिर आयेंगे |

जितने लम्हे थे, मेरे दिल को, लुभाने वाले ||

राह तकता हूँ, खुली आँख से सोते-सोते |

लौट जाएँ न कहीं, लौट के आने वाले ||

गैर होते तो, ज़माने से, गिला भी करते |

मेरे अपने हैं, मेरा चैन , चुराने वाले ||

कट तो जायेगी 'शशि', उम्र ये जैसे-तैसे |

हम भी रूठों… Continue

Added by Shashi Mehra on July 8, 2011 at 6:34pm — No Comments

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