तुम्हारी हक़ बयानी को कभी डर कर न लिक्खेंगे ...
कि आईने को हरगिज़ हम कभी पत्थर न लिक्खेंगे...
रहे इश्को वफ़ा में ये तो सब होता ही रहता है..
तुम्हारी आज़माइश को कभी ठोकर न लिक्खेंगे....
भरोसा क्या कहीं भी ज़ख्म दे सकता है हस्ती को........
हम अपने दुश्मने जां को कभी दिलबर न लिक्खेंगे.....
तू क़ैदी घर का है, हम तो मुसाफिर दस्तो सहरा के....
कहाँ हम और कहाँ तू हम तुझे हमसर न लिक्खेंगे.....
उड़ानों से हदें होती है कायम हर परिंदे कि…
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on July 18, 2012 at 9:00am — 6 Comments
मेरी आँखों में जो देखा गया है ...
तेरे ही अक़स को पाया गया है ...
मुझे आइन-ए-तहज़ीब समझा ...
वो शायद इस लिये शर्मा गया है ...
वही जिसने मुझे दीवाना समझा ...
जहाने दिल पे मेरे छा गया है ...
निगाहों से न बच पाया मैं उसकी ...
मुझे इस तोवर से ढूंढा गया है ...
उसे हुस्ने-सरापा कह दिया था ...
उसी दिन से वो बस इतरा गया है ...
ये किसके लम्स का झोंका था आख़िर ...
मेरे कमरे को जो महका गया है ... …
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on July 9, 2012 at 6:30pm — 6 Comments
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