मेरी कराहों की
लोरियां सुनकर
तुम सो गए
रस्सियों से जकड़ी
मेरी देह से
रिसते लहू ने
तुम्हारा मुख धोया
मेरे पसीने की दुर्गन्ध से
तुम जग गए
तुमने और कस दी
मेरी रस्सियाँ
जो मांस को चीर कर
हड्डियों तक धंस गयीं
मेरी पीड़ा कंठ से निकल
कपाल में फंस गयी
तब तुमने किया
एक विराट…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 25, 2015 at 9:30pm — 6 Comments
हमें भी न आया
तू ऐसा बीज थी
जिसे न मिली धूप
न हवा, न पानी
और न कोई खाद
फिर भी तू पनपी
पनपी ही नही
बन गयी एक पेड़
बरगद सी छाया
फिर तूने बसाया
अपना संसार
और कहलाई माँ
फिर बांटी तेजस धूप
पवन में भरी गंध
दूध से सींचे पौधे
हृदय को मथकर
लाई खाद
हुए तेरे
लख-लख पूत आबाद…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 7, 2015 at 8:38pm — 15 Comments
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