हिन्दी साहित्य में ‘बरवै’ एक विख्यात छंद है . इस छंद के प्रणेता सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक महाकवि अब्दुर्रहीम खानखाना 'रहीम' माने जाते हैं . कहा जाता है कि रहीम का कोई दास अवकाश लेकर विवाह करने गया. वह जब वापस आया तो उसकी विरहाकुल नवोढा ने उसके मन में अपनी स्मृति बनाये रखने के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर उसे दीं-
नेह-छेह का बिरवा चल्यो लगाय I
सींचन की सुधि लीजो मुरझि न जायII
रहीम के साहित्य-प्रेम से तो सभी परिचित थे . अतः उस दास ने ये पंक्तियाँ रहीम को दिखाईं . रहीम ऐसी सुन्दर भावपूर्णउक्ति से तो अभिभूत हुए ही, उन्हें इन पंक्तियों का शिल्प भी अद्भुत लगा . उन्होंने सुनते ही प्रचलित छंदों से इसका मिलान किया . कितु इसकी मात्राएँ और यति--गति सर्वथा भिन्न थी . उन्होंने स्वयं इस संयोजन पर लिखने का प्रयास किया . जब उन्हे यह छंद सिद्ध हो गया तब उहोने इसका नामकरण मूल छंद के बिरवा शब्द से किया और छंद का नाम ‘बरवै’ रखा . रहीम ने कालांतर में इसी छंद पर आधारित ‘बरवै नायिका-भेद’ की रचना की, जो हिंदी- साहित्य में बहुत समादृत हुआ . गोस्वामी तुलसीदास भी इस छंद से प्रभावित हुए थे और उन्होंने ‘बरवै रामायण’ की रचना की थी. परवर्ती कवियों ने प्रायशः इस छंद में कम रचनायें की .
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
उम्दा जानकारी साझा की है आपने आ. गोपाल नारायण जी. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
आदरणीय गोपाल नारायण जी,
बहुत दिलचस्प जानकारी साझा की आपने. वस्तुतः अन्य चीजों की ही तरह छंदों का भी मूल स्रोत लोक ही है. हार्दिक धन्यवाद.
एक महत्वपूर्ण जानकारी दी है आपने आदरणीय गोपाल सर | बहुत बहुत धन्यवाद आपका |
जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,बढ़िया जानकारी,धन्यवाद आपका ।
अच्छी जानकारी उपलब्ध कराई आपने, आद0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी। बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
आदरणीय गोपाल नारायण जी आदाब,
बरवै छंद के बारे में आपने महत्वपूर्ण जानकारी दी । जानकर अच्छा लगा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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