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कल रात तेरे शहर से गुज़रे तमाम रात।
ख़्वाबों में हमने देखे वो रस्ते तमाम रात।
मायूसी औ थकन के सिवा कुछ नहीं मिला,
बोझिल सहर की आस में जागे तमाम रात।
जलती ज़मीं की प्यास बुझाने के वास्ते,
तारे फ़लक की गोद में रोये तमाम रात।
अब मिल रही है हमको सज़ा हर गुनाह की,
ख़त तुझको एक उम्र लिखे थे तमाम रात।
मैं शायरी को छोड़के भी खुश न रह सका,
मिसरे महीनों आँखों में तड़पे तमाम…
Added by मनोज अहसास on August 21, 2022 at 11:00pm — 8 Comments
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