नवगीत
प्रेम भाव के सेतु बन्ध में,
कुटिल नीति के खम्भ गड़े हैं।
गहन सिंधु से मुक्त हुआ रवि,
पथ पर पर्वत अटल अड़े है।
प्रजातंत्र की जड़े हिला कर,
स्वर्ण कवच में सजल खड़े है।।1
कर लम्बे अति प्रखर सोच रति
तीक्ष्ण बाण से भीष्म बिंधे है।
श्वांस-श्वांस चलती लू-अंधड़,
संशय मन में प्रश्न बड़े हैं।।2
छलक रहे नित अश्रु गाल पर,
शुष्क होंठ भी सिले हुए हैं।
भाव-वचन पर शोध नही जब,
चींख रहे जन तंग घड़े…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 12, 2014 at 4:52am — 3 Comments
ताव नित देते रहे..
ज्ञान के वटराज जिनको छॉंव नित देते रहे।
आरियों के वार से वो घाव नित देते रहे।।
कालिदासों को वही विद्योत्मा कैसे मिले,
पंडितों के ज्ञान को वो दॉंव नित देते रहे।
शब्द मुखरित सोच कुंठित कर्म कौरव का वरे,
धर्म के उत्कर्ष में बस ताव नित देते रहे।
चाहना की झाड़ में फॅस जब मलय वन त्यागते,
वक्त-सौरभ-धैर्य-साहस ठॉव नित देते रहे।
शारदे साहित्य व्यंजन में जगह कब द्वेष की,
मन-विषय-विष वासना…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 4, 2014 at 8:20am — 6 Comments
गजल - वही साखी पुरानी है...
1222, 1222, 1222, 1222
वही काठी, वही जज्बा, वही लाठी पुरानी है।
हसीं बुत मिल गया जिसमें वही मिट्टी पुरानी है।
अॅंधेरों को मिटाकर रोशनी के साथ जलता जो,
वही सूरज, वही चन्दा, वही भट्टी पुरानी है।
जगा कर देश को जिसने बढाया मान-मर्यादा,
वही पत्रक, वही पोथी, वही रद्दी पुरानी है।
दिला कर मंजिले पर्वत शिखर का कद किया बौना,
वही धागा कलाई का वही रस्सी पुरानी है।
जला कर दीप…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 3, 2014 at 2:14pm — 12 Comments
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