2122 2122 2122 212
नाव है मझधार में नाविक नशे में चूर है
सांझ है होने लगी मंजिल नज़र से दूर है
संकटों से आदमी क्या देव भी बचते नहीं
वक्त के आगे सभी होते यहां मजबूर है
जिन्दगी की कशमकश में जीना’ जिसको आ गया
यों समझ लो हौसलों से वो बहुत भरपूर है
दोष है अपना समय के साथ चल पाये नहीं
बंद मुट्ठी से फिसलना वक्त का दस्तूर है
हाल ‘‘मेठानी’’ बतायंे क्या किसी को अब यहां
आदमी सुनता नहीं अब हो गया मगरूर…
Added by Dayaram Methani on August 27, 2019 at 10:00pm — 2 Comments
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