मनाना तो चाहता हूँ ईद
मगर बंद है
मेरे दिल के दरवाज़े
और ईद का चाँद
मुझे दिखाई नहीं पड़ता
दिवाली,दशहरा कैसे मनाऊँ
मेरे अन्दर का रावण
नहीं मरता मुझसे
बापू की जयंती है
पर मै
उनसे भी शर्मिंदा हूँ
मेरे अन्दर हिंसा है
लालच है
मै नहीं मिला पाता
अपनी नज़रें
उनकी तस्वीर से
जिन शहीदों ने
जान तक दे दी
हमारी आज़ादी के लिए
हमने उनका सब कुछ लूट…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on September 30, 2012 at 7:00pm — 5 Comments
तुम जल रहे हो, हम जल रहे हैं
ख़ुद अपनी आँच में पिघल रहे हैं
नया दौर हैं नये हैं रस्मों-रिवाज़
अब इंसानियत के पैगाम बदल रहे हैं
बाज़ारों की रौनक है, जादू का खेल
किस…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on September 28, 2012 at 4:00pm — 6 Comments
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