चार माह की
तपती धरा पर
जैसे ही बारिश की बूँदे बरसी
बो दिये , नन्हे-नन्हे अंकुरों को
कई कतारों में
सभी ने मिलकर
नन्हें -नन्हे से हाथो को
ऊँचा उठाकर
दूर कर दी , मिट्टी की चादर
धीरे से झाँक ने लगे
इस सुंदर सी दुनिया को
दो से चार और फिर छै:
धीरे-धीरे पत्तियां बढ़ने लगी
ढांकने लगी
अपनी ही छाँव से,
नाजुक जड़ों को
धूप में भी बनाये रखी
अपने-अपने हिस्से की नमी
अपनी एकता की…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on September 29, 2014 at 10:30pm — 14 Comments
मध्यम वर्गीय परिवार में पला-बड़ा मुकेश, अपने छोटे से शहर से अच्छे प्राप्तांक से स्नातक की डिग्री लेकर बड़े शहर में प्रसिद्द निजी शिक्षण संस्था से प्रबंधन की डिग्री लेना चाहता है. आर्थिक समस्या के कारण उसे संस्था में प्रवेश नही मिल पा रहा है उसने कई बार संस्था के प्रबंध-समूह से शुल्क में कमी करने की गुजारिश की, लेकिन शिक्षा भी तो व्यापार ही सिखाती है. अपने ही शहर के दो और छात्रों को उसी प्रसिद्द निजी संस्था की गुणवत्ता बताकर, प्रवेश दिलवाने से मुकेश के पास अब एक वर्ष के रहने और खाने के पूँजी…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on September 19, 2014 at 11:34pm — 6 Comments
" भाई! रामौतार.. यह साल तो खेती के हिसाब से बहुत ही बढ़िया रहा. काश! ऐसा हर साल ही होता रहे " दिनेश ने अपनी हथेली पर तंबाकू मे चूना लगाकर , रगड़ते हुए कहा
" हाँ भाई! दिनेश.. सच इस बार, हर साल की तुलना मे अतिवृष्टि से थोड़ी कम फसल ज़रूर हुई लेकिन लोक-सभा और विधान- सभा चुनाव के रहते सरकारों ने खूब मुआवज़ा भी दिया और फसल बीमा को भी मंज़ूरी दिलवाई , तो देखो न! दोगुने से भी ज्यादा बचत हो गई " रामौतार ने दिनेश की हथेली पर से मली हुई तंबाकू अपने मुंह में दबाते हुए…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on September 15, 2014 at 8:30pm — 12 Comments
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