वज़्न -1212 1122 1212 22/112
मसीहा बन के जो आसानियाँ बनाते हैं
गिरा के झोपड़ी वो बस्तियाँ बनाते हैं
ये आ'ला ज़र्फ़ हैं कैसे, बुलंदी पाते ही
उन्हें गिराते हैं जो सीढ़ियाँ बनाते हैं
है भूख इतनी बड़ी अब कि छोटे बच्चे भी
किताब छोड़ चुके बीड़ियाँ बनाते हैं
ग़िज़ा जहान में उनको नहीं मयस्सर क्यों
जो फ़स्ल उगा के यहाँ रोटियाँ बनाते हैं
उन्हें नसीब ने घर जाने क्यों दिया ही नहीं
सभी के वास्ते जो आशियाँ बनाते…
Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 23, 2021 at 10:00pm — 6 Comments
वज़्न -2122 2122 2122 212
ख़ुद को उनकी बेरुख़ी से बे- ख़बर रहने दिया
उम्र भर दिल में उन्हीं का मुस्तक़र* रहने दिया (ठिकाना)
उनकी नज़रों में ज़बर होने की ख़्वाहिश दिल में ले
हमने ख़ुद को ज़ेर उनको पेशतर रहने दिया
उम्र का तन्हा सफ़र हमने किया यूँ शादमाँ
उनकी यादों को ही अपना हमसफ़र रहने दिया
उनसे मिलकर जो कभी होती थी इस दिल को नसीब
अपने ख़्वाबों को उसी राहत का घर रहने दिया
वो न आएँगे शब- ए- फ़ुर्क़त…
ContinueAdded by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 19, 2021 at 12:07pm — 4 Comments
वज़्न - 22 22 22 22 22 2
उनसे मिलने का हर मंज़र दफ़्न किया
सीप सी आँखों में इक गौहर दफ़्न किया
दिल ने हर पल याद किया है उनको ही
जिनको अक़्ल ने दिल में अक्सर दफ़्न किया
ख़्वाब उनकी क़ुर्बत के टूटे तो हमने
इक तुरबत को घर कहकर घर दफ़्न किया
उनका शाद ख़याल आने पर भी हमने
कब अपने अंदर का मुज़तर दफ़्न किया
मुझमें ज़िंदा हैं मेरे अजदाद सभी
मौत फ़क़त तूने तो पैकर दफ़्न…
Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 16, 2021 at 8:30pm — 23 Comments
वज़्न - 2122 2122 2122 212
ज़ीस्त की शीरीनियों से दूरियाँ रह जाएँगी
बिन तुम्हारे महज़ मुझ में तल्ख़ियाँ रह जाएँगी
वक़्त-ए-रुख़सत अश्क के गौहर लुटाएँगी बहुत
सूनी सूनी चश्म की फिर सीपियाँ रह जाएँगी
रेत पर लिख कर मिटाई हैं जो तुमने मेरे नाम
ज़ह्न में महफ़ूज़ ये सब चिट्ठियाँ रह जाएँगी
बातें मूसीक़ी-सी तेरी हैं मगर कल मेरे साथ
गुफ़्तगू करती हुई ख़ामोशियाँ रह जाएँगी
एक घर हो घर में तुम हो तुमसे सारी…
ContinueAdded by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 11, 2021 at 8:30pm — 10 Comments
वज़्न -221 2121 1221 212
हस्ती में उसकी ख़ुद को मिलाने चली हूँ मैं
यानी कि अपने आप को पाने चली हूँ मैं
दरिया सिफ़त हूँ आब है मुझ में उसी का और
जानिब उसी की प्यास बुझाने चली हूँ मैं
रौशन चराग़ सा वो रहे मुझ में इसलिए
मिश्कात* अपने दिल को बनाने चली हूँ मैं
जिस ख़ाक से बनी हूँ फ़ना उस में ख़ुद को कर
मिट्टी वजूद अपना बचाने चली हूँ मैं
जब वो है मेरे गिर्द हवा-सा तो किस लिए
अपने क़रीब उस को बुलाने चली हूँ मैं
रहकर बदन की क़ैद में…
ContinueAdded by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 10, 2021 at 5:42pm — 10 Comments
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