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Ravi Prakash's Blog – November 2016 Archive (3)

ग़ज़ल (पुराने अंदाज़ में) // रवि प्रकाश

ग़ज़ल (पुराने अंदाज़ में)

बहर-SSSSSSSSSSS



जीवन का एकाकीपन मिट जावेगा

आन मिलेंगे पी तो मन इतरावेगा।

  आ जावेंगे बिछुड़े संगी-साथी भी

  कौन कहाँ लौं मन ऐसे तरसावेगा।

जब निरखेंगे नैन किसी के नेह भरे

झूलों का मौसम फिर से फिर आवेगा।

  परसेगा कब तक शून्य हमारी निद्रा

  अब तो कोई सपना दर खटकावेगा।

मन हुलसेगा सावन के पहले घन सा

झूमेगा,हर ओर सुधा बरसावेगा।

  खो देंगे हम भी उस पल सारी निजता

  रंग किसी का जब हस्ती पे छावेगा।

जी ही… Continue

Added by Ravi Prakash on November 24, 2016 at 1:42pm — 4 Comments

है यही पाथेय मेरा // रवि प्रकाश

है यही पाथेय मेरा

एक नन्हा सा अकेला

पल कि जिसमें एक मैं हूँ एक तुम हो

दूर तक कोई नहीं है

और भीतर झिलमिलाते कोटि दीपक

टिमटिमाते हैं सितारे और सूरज भी दमकते

फूटते निर्झर सहस्रों

अति सघन हिमरेख गल कर बह निकलती,

चाह कर भी छुप न पाती

हैं उमंगें दो दिलों की

देह आगे और आगे ही सरकती

चाहती अस्तित्व का अंतिम सिरा

छू कर पिघलना,

देखते हैं नैन ऐसे

आ गया हो ज्वार जैसे

और फिर यूँ बंद होते

लाज में लिपटे अचानक

दूर परबत के शिखर… Continue

Added by Ravi Prakash on November 19, 2016 at 2:24pm — 6 Comments

ओ मेरी जान! //रवि प्रकाश

ओ मेरी जान!

तुम्हें जान से कम कुछ कहूँ

तो कितना कम लगता है

वैसे तो हर संबोधन में तुम केवल

अंजुरी भर ही आते हो,

फिर भी जब कहती हूँ अपनी जान तुम्हें

मैं ख़ुद को ज़िंदा पाती हूँ,

मुझको यूँ लगता है

जैसे दूर कहीं क्षितिज पर

दो अलग अलग उड़ते बादल

अपना-अपना रंग-रूप,आकार भूल कर

एक दूजे में घुलमिल जाएँ

और अलग कर पाना अब उनको

नामुमकिन बात लगे प्यारे!

(देखो मैं भी कविता करने लगी हूँ...वाह! वाह!)

और बताऊँ?

क्यों बताऊँ?

छोड़ो,… Continue

Added by Ravi Prakash on November 3, 2016 at 12:52pm — 2 Comments

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