माँ वो है-
जो जन कर जुड़ जाती है
चेतना के अंधकूपों में भी
अपने जने का करती है पीछा,
एक सूत्र बन कर संतति से हो जाती है तदाकार,
पालना ही जिसका
सार्वत्रिक,सार्वभौमिक और शाश्वत संस्कार;
शायद इसीलिए हमारे
उन दिग्विजयी पड़दादाओं ने
तेरे कगारों पर दण्डवत कर के
उर्मिल जल की
अँजुरी भर के
कोई संकल्प किया था
और बुदबुदाये थे कितने ही मंत्र अनायास
तुझे माँ कह कर।
वो शायद आदिम थे
इसीलिए भ्रमित थे,असभ्य थे
और हम सभ्य हैं
क्योंकि हमने साफ कहा-
"तू माँ है तो-
तेरा बस एक कोना है,
वहाँ जो मिल जाए
खुशी से ले ले,
रोना भी यूँ कि कराह निकले न सिसकी
क्योंकि हमारी सभ्यता में ख़लल पड़ता है;
श्लोकों का ज़माना बीत गया
भोजपत्रों के साथ ही,
अब तो साँसें भी 'आनलाइन' चलती हैं
और 'गूगल-ग्लास' से
तू क्या देखेगी दुनिया?
वैसे भी माँएं जब बूढ़ी हो जाती हैं
और उनके पास रह जाता है
बस पानी,खाँसी और तकिया,
तो उनके सोए रहने में ही भलाई है,
प्रश्न पूछना बेसमझी है,बेहयाई है।"
मगर छाया देता है जो
कर सकता है अनाथ भी;
ऐसे ही किसी बिन्दु पर माँ ने ली होगी करवट
पिता का खुला होगा तीसरा नेत्र
धीरता का टूटा होगा सदियों पुराना अवरोध,
फिर रेले में कहाँ होता है सौंदर्य-बोध,
कहाँ होती है धुन
दलता है गेहूँ,पिसता है घुन,
सुन्दर-कुरूप का मिट जाता है भेद,
घुट जाते हैं सारे स्तोत्र
बाक़ी रह जाता है खेद।
निःसंदेह फिर उठेंगे स्तंभ
छतें,दीवारें,छज्जे,शिखर,गुम्बद भी
और जलेंगे दीपदान,धूपदान,
जहाँ बुझे हैं चिराग़
वो ख़ुद लाए चिंगारी;
हमें इत्मीनान है कि
वो हम नहीं थे-
जो घुटे हैं,तड़पे हैं,चीखे हैं,उखड़े हैं।
माँ, तुम भी ढूँढ़ लेना कोई ठौर,
मूँद लेना आँखें
कुछ बरस या कुछ सदी और॥
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
माँ गंगा की व्यथा पर लिखी गई सामयिक परिदृश्य को परिलक्षित करती आपकी कविता बहुत ही बढ़िया है , बधाई आपको आदरणीय ।
श्री रवि प्रकाश जी ,
बहुत ही सार्थक लेखन |
"भोजपत्रों के साथ ही,
अब तो साँसें भी 'आनलाइन' चलती हैं
और 'गूगल-ग्लास' से
तू क्या देखेगी दुनिया?
वैसे भी माँएं जब बूढ़ी हो जाती हैं
और उनके पास रह जाता है
बस पानी,खाँसी और तकिया,
तो उनके सोए रहने में ही भलाई है,
प्रश्न पूछना बेसमझी है,बेहयाई है।"
प्रश्न पूछना बेसमझी है,बेहयाई है।"""" मार्मिक पंक्तियाँ
इस सारगर्भित अभिव्यक्ति पर मेरी हार्दिक बधाई लें, आदरणीय
बहुत ही प्रासंगिक प्रश्न --विकास का अर्थ स्वार्थपूरित संग्रह और सम्बन्ध निर्वहन मात्र है क्या ? -- को सार्थक शब्द मिले हैं. आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
सादर
मातृ स्वरूपा प्रकृति की अवहेलना और आधुनिकता की चकाचौंध में माँ को उपेक्षित कर दरकिनार कर दिया जाना सापेक्षता में ले कर चलना और फिर प्रकृति का प्रकोप... सामयिक परिपेक्ष्य में बहुत ही अलग दृष्टिकोण से लिखी गयी अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय सुंदर रचना.....
सामयिक परिदृश्य को नये नजरिये से देखा गया, वाह !!!
सुन्दर भाव
आदरणीय-
परम-पिता के क्रोध से, नहीं मूर्ख मन चेत |
माँ के आंसू देखकर, जग-माँ लेत लपेट |
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