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टूटने लगे हैं घर शब्दों से
अब तो लगता है डर शब्दों से
दैर हरम इक हो जाते लेकिन
पड़े दिलों पे पत्थर शब्दों से
हैं मेरे हमराह ज़रा देखो
ग़ालिब ओ मीर ,ज़फ़र शब्दों से
बनती बात बिगड़ने लगती है
ऐसे उठे बवण्डर शब्दों से
फूल अमन के खिलते कैसे अब
दिल आज हुए बन्जर शब्दों से
मेरी हस्ती गुमनाम -रहे पर
छाऊँ सबके मन पर शब्दों से
गुमनाम पिथौरागढ़ी
मौलिक व…
Added by gumnaam pithoragarhi on November 19, 2014 at 8:00pm — 9 Comments
ग़ज़ल
2122 1212 22
सब दुआ का असर है क्या कहिए
बेबसी दर ब दर है क्या कहिए
याद करके तुझे महकता हूँ
फूल का तू शज़र है क्या कहिए
की जमा मैंने दौलतें ताउम्र
साथ आखिर सिफर है क्या कहिए
खत लिखे थे जिसे कभी तुमने
अब भी वो बेखबर है क्या कहिए
है सुकूं ये कि मैं भी जिन्दा हूँ
ज़िन्दगी मुख़्तसर है क्या कहिए
खार राहों के कह रहे गुमनाम
अब तेरा घर ही घर है क्या कहिए
गुमनाम पिथौरागढ़ी…
Added by gumnaam pithoragarhi on November 14, 2014 at 6:43pm — 6 Comments
दिल ये मेरा फ़क़ीर होना चाहे
घर फूँके बिन कबीर होना चाहे
तकसीम मज़हबों में करके हमको
तू बस्ती का वज़ीर होना चाहे
किस्मत में न सही तू ,पर तेरे ही
हाथों की वो लकीर होना चाहे
माँ की बराबरी करना छोडो तुम
गो ,खिचड़ी आज खीर होना चाहे
शोख नज़र दिलनशी अदा ये रूखसार
देख तुझे दिल शरीर होना चाहे
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Added by gumnaam pithoragarhi on November 10, 2014 at 7:00am — 5 Comments
बाप साँसे बस दो चार सँभाले हुए हैं
तब से बेटे बंगले कार सँभाले हुए हैं
जिसने रद्दी कुछ अखबार सँभाले हुए हैं
हाँ उन्ही बच्चों ने घरबार सँभाले हुए हैं
आशियाँ टूट चुका इश्क़ का फिर भी लेकिन
हम वफ़ा की इक दीवार सँभाले हुए हैं
शाह तो खोये रंगीनी में हरम की यारो
आप जंजीर की झंकार सँभाले हुए हैं
मुल्क को लूट रहे जितने भी थे ख़ैरख़्वाह
मुल्क को कुछ ही वफादार सँभाले हुए हैं
आपदा के जितने पीड़ित थे उनको बस
सुर्ख़ियों में…
Added by gumnaam pithoragarhi on November 6, 2014 at 1:00pm — 11 Comments
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