बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है
क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है
इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी
धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है
हैं लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे
हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है
हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ
कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है
रिश्ते बबूल बनके चुभते हैं जिंदगी भर
शर्मोहया की जब भी दीवार टूटती…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 20, 2013 at 10:28pm — 18 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
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याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं
क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं
बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे
और हम हैं घड़ी न होते हैं
प्रेम के वो न टूटते धागे
जिनके रेशे महीन होते हैं
वन में उगने से, वन में रहने से
पेड़ खुद जंगली न होते हैं
उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ
रात सपने हसीन होते हैं
खट्टे मीठे घुलें कई लम्हे
यूँ नयन शर्बती न होते…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:52pm — 34 Comments
बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२
जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम
जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 15, 2013 at 11:34pm — 30 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
सूखते नल के आँसू टपकने लगे
देख छागल के आँसू टपकने लगे
भूख से चूक पत्थर गिरे याँ वहाँ
देखकर फल के आँसू टपकने लगे
था हवा की नज़र में तो बरसा नहीं
किंतु बादल के आँसू टपकने लगे
आइने ने कहा कुछ नहीं इसलिए
रात काजल के आँसू टपकने लगे
घास कुहरे से शब भर निहत्थे लड़ी
देख जंगल के आँसू टपकने लगे
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 8, 2013 at 12:30pm — 15 Comments
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