तन्हाई में ...
होती है
बहुत ज़रूरत
तन्हाई में
तन्हा हाथ को
अपने से
एक हाथ की
बोलता रहे
जिसका स्पर्श
सदियों तक
अलसाई सी तन्हाई में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 20, 2019 at 8:05pm — 6 Comments
सजन रे झूठ मत बोलो ...
रहने दो
मेरे घावों पर
मरहम लगाने की कोशिश मत करो
मैं जानती हूँ
तुम्हारे मन में
मैं नहीं
सिर्फ मेरा तन है
जानती हूँ
रैन होते ही तुम आओगे
कुछ बहलाओगे कुछ फुसलाओगे
धीरे धीरे मैं बहल जाऊँगी
मोम सी पिघल जाऊँगी
न न करते
मर्यादाओं की दहलीज़ लाँघ जाऊँगी
भोर के साथ नशा उतर जाएगा
हर वादा बहक जाएगा
हर बार की तरह
मेरे मन में
फिर आने की कसक छोड़ जाओगे
हर इंतज़ार
बस…
Added by Sushil Sarna on July 19, 2019 at 4:24pm — 1 Comment
अहसास .. कुछ क्षणिकाएं
छुप गया दर्द
आँखों के मुखौटों में
मुखौटे
सिर्फ चेहरे पर
नहीं हुआ करते
.............................
छील गया
उल्फ़त की चुभन को
एक रेशमी खंजर
चुपके से
...........................
झील की आगोश में
चाँद की
चाँद संग सरगोशियाँ
कर गई बेनकाब
सह्र की
पहली किरण
........................
बन जाती
घास पर
ओस की बूँद
रोता है
जब चाँद
आसमान…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 15, 2019 at 6:53pm — 6 Comments
श्वासों में....
मैं नहीं चाहता अभी
मृत्यु का वरण करना
प्रेम का वरण करना
शेष है अभी
श्वासों में
प्रतीक्षा की दहलीज़ पर
खड़े हैं कई स्वप्न
निस्तेज से
अवसन्न मुद्रा में
साकार होने को
मैं नहीं चाहता
सपनों की किर्चियों से
पलक पथ को रक्तरंजित करना
तिमिर गुहा में
यथार्थ से
साक्षात्कार करना
शेष है अभी
श्वासों में
अभी अनीस नहीं हुई
मेरी देह
ज़िंदा हैं आज भी…
Added by Sushil Sarna on July 8, 2019 at 5:28pm — 2 Comments
वज़ह.....
बिछुड़ती हुई
हर शय
लगने लगती है
बड़ी अज़ीज
अंतिम लम्हों में
क्योँकि
होता है
हर शय से
लगाव
बेइंतिहा
दर्द होता है
बहुत
जब रह जाती है
पीछे
ज़िंदगी
जीने की
वज़ह
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 5, 2019 at 4:56pm — 4 Comments
मौन पर त्वरित क्षणिकाएं :
मौन तो
क्षरण है
शोर का
............
मन का
कोलाहल है
मौन
.............
मौन
स्वीकार है
समर्पण का
...............
मौन
प्रतिशोध का
शोर है
..............
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 26, 2019 at 8:12pm — 6 Comments
शब्द ....
शब्द
बतियाते हैं तो
सृजन बन जाते हैं
शब्द
बतियाते हैं तो
वाचाल हो उठती है
अंतस भावों की
पाषाण प्रतिमा
शब्द
बतियाते हैं तो
बन जाते हैं
कालजयी
शिलालेख
शब्द
बतियाते हैं तो
छीन लेते हैं
मौन में दबे दर्द की
मौनता को
इसीलिए
शब्दों का बतियाना
बड़ा अच्छा लगता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 23, 2019 at 5:02pm — 2 Comments
ख़्वाब ... (क्षणिका )
तैरता रहा तुम्हारा अक्स
मेरे ख़्वाबों के प्याले में
माहताब बनकर
मैं निहारता रहा
अब्र में
बिखरता ख़्वाब
छलिया माहताब में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 22, 2019 at 4:58pm — 6 Comments
कर्म आधारित दोहे :
अपने अपने नीड़ की, अपनी अपनी पीर।
हर बंदे के कर्म ही, हैं उसकी तकदीर।।
पाप पुण्य संसार में, हैं कर्मों के भोग।
सुख-दुख पाना जीव का ,मात्र नहीं संयोग।।
हर किसी के कर्म का, दाता रखे हिसाब।
देना होगा ईश को ,हर कर्म का जवाब।।
चाँदी सोना धन सभी, हैं जग में बेकार।
सद कर्मों से जीव का, होता बेड़ा पार।।
जग में आया छोड़कर, जब तू अपना धाम।
धन अर्जन के कर्म में, भूल गया तू…
Added by Sushil Sarna on June 20, 2019 at 2:33pm — 10 Comments
ताप संताप दोहे :
सूरज अपने ताप का, देख जरा संताप।
हरियाली को दे दिया, जैसे तूने शाप।।
भानु रशिम कर रही, कैसा तांडव आज।
वसुधा की काया फटी,ठूंठ बने सरताज।।
वसुंधरा का हो गया, देखो कैसा रूप।
हरियाली को खा गई, भानु तेरी धूप।।
मेघो अपने रहम की, जरा करो बरसात।
अपनी बूंदों से हरो, धरती का संताप।।
तृषित धरा को दीजिये, इंद्रदेव वरदान।
हलधर लौटे खेत में, खूब उगाये धान।।
सुशील सरना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 19, 2019 at 7:04pm — 8 Comments
औरत.....
जाने
कितने चेहरे रखती है
मुस्कराहट
थक गई है
दर्द के पैबंद सीते सीते
ज़िंदगी
हर रात
कोई मुझे
आसमाँ बना देता है
हर सह्र
मैं पाताल से गहरे अंधेरों में
धकेल दी जाती हूँ
उफ़्फ़ ! कितनी बेअदबी होती है
मेरे जिस्म के…
Added by Sushil Sarna on June 18, 2019 at 1:07pm — 1 Comment
गर्मी पर 5 दोहे ....
लू में हर जन भोगता, अनचाहा संताप।
दुश्मन मेघों का बना,भानु किरण का ताप।।
मेघों से धरती कहे, कब बरसोगे तात।
प्यासी वसुधा मांगती, थोड़ी सी बरसात।।
जंगल सारे कट गए, कैसे हो बरसात।
तपती धरती पर लिखी, पर्यावरणी बात।।
धरती पर हर ताप का, भानु ताप सरताज।
गौर वर्ण पर हो गया, स्वेद कणों का राज।।
भानु अनल से तप रहे, धरती अंबर आज।
प्यासा जीवन हो गया, बारिश का मुहताज…
Added by Sushil Sarna on June 6, 2019 at 7:00pm — 5 Comments
ईद ...
दीद आपकी ईद पर, है अनुपम सौगात।
ईद मुबारक कर गई , आज ईद की रात ।।
मेघों की चिलमन हटी, हुई चाँद की दीद।
भेद-भाव सब भूलकर, कहें मुबारक ईद।।
दीद आपकी दे गई, ईदी हमको आज।
धड़कन के बजने लगे, देखो दिल में साज ।।
अर्श पर्श पर आज है, ईद मिलन का राज ।
ईद मुबारक सब कहें , इक दूजे को आज ।।
तरस रही हैं दीद को,कब आएगी ईद।
आएगी जब ईद, तो कैसे होगी दीद।।
बिना आपके बे-मज़ा,…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 5, 2019 at 3:30pm — 3 Comments
ज़िंदगी ... तीन क्षणिकाएँ
मरती रही ज़िंदगी
ज़िंदा रही जब तक
अमर हो गई
फ्रेम में
कैद होने के बाद
..........................
जीती रही ज़िंदगी
ज़िंदा रही जब तक
मर गई
फ्रेम में
कैद होने से पहले
..........................
वाकिफ़ थी
अपने हश्र से
ज़िंदगी
फिर भी
मिट न सकी
जीने की लालसा
अवसान से पहले
.....................
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 2, 2019 at 9:24pm — 4 Comments
चुप होना चाहता हूँ ....
नहीं नहीं
बहुत हुआ
अब मैं चुप रहना चाहता हूँ
अंधेरों सा खामोश रहना चाहता हूँ
अब मेरे पास
न तो विचार हैं
न किसी भी विचार को
अभिव्यक्त करने के लिए शब्द
पता नहीं
क्यों मैं चुप नहीं रह पाता
बावजूद ये जानते हुए भी
कि मेरे बोलने से कुछ नहीं बदलने वाला
मैं निरंतर बोले जा रहा हूँ
न जाने किसे और क्या क्या
मैं नहीं जानता
मेरा इस तरह से लगातार बोलना
किस हद तक ठीक है…
Added by Sushil Sarna on May 31, 2019 at 12:00pm — 4 Comments
मर्म .....
कितनी पहेलियाँ हैं
हथेलियों की
इन चंद रेखाओं में
पढ़ते हैं
लोग इनमें
जीवन की लम्बाई
साँसों की गिनती
भौतिक सुख सुविधा
दाम्पत्य सुख
औलाद
सब कुछ पढ़ते है
नहीं पढ़ते
तो
प्राण बिंदु का मर्म
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 30, 2019 at 3:04pm — 1 Comment
छंद सोरठा .......
अपनेपन की गंध, अपनों में मिलती नहीं।
स्वार्थपूर्ण दुर्गन्ध,रिश्तों से उठने लगी।1।
प्रथम सुवासित भोर, प्रीत सुवासित कर गई।
मधुर मिलन का शोर, नैनों में होने लगा।2।
तृषित रहा शृंगार, बंजारी सी प्यास का।
धधक उठे अंगार,अवगुंठन में प्रीत के।3।
जागे मन में प्रीत, नैन मिलें जब नैन से ।
बने हार भी जीत, दो पल में सदियाँ मिटें।4।
वो पहली मनुहार, यौवन की दहलीज पर।
शरमीली सी हार,हर बंधन…
Added by Sushil Sarna on May 29, 2019 at 1:23pm — No Comments
बुढ़ापा ...
शैशव,बचपन ,जवानी
छूट जाती है
बहुत पीछे
जब आता है
बुढ़ापा
छूट जाता है
हर मुखौटा
हर आयु का
जब आता है
बुढ़ापा
बहुत लगती है
प्यास
बीते हुए दिनों की
तृषा की ओढ़नी में
तृप्ति की तलाश में
युगों के बिछोने पर
उड़ जाता है तोड़ कर
काया की प्राचीर को
अंत में
अनंत में
ये
पावन
बुढ़ापा
सुशील सरना
मौखिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 28, 2019 at 1:00pm — 2 Comments
विदाई से पहले : 4 क्षणिकाएं
क्या संभव है
अनंतता को प्राप्त करना
महाशून्य की संख्याओं को
विलग करते हुए
........................................
उड़ने की तमन्नाएँ
आशाओं के बवंडर के साथ
भेदती रही नीलांबर को
अपने कर्णभेदी
अश्रुहीन रुदन से
......................................
मैं चाहता था
तुम्हें चाँद तक पहुंचाना
अपनी बाहों के घेरे में घेरकर
गिर गया स्वप्न
फिसल कर
आँखों के फलक से
हकीकत के…
Added by Sushil Sarna on May 27, 2019 at 11:44am — 4 Comments
रैन पर कुछ शृंगारिक दोहे :
Added by Sushil Sarna on May 24, 2019 at 4:00pm — No Comments
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