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सामाजिक संदर्भ हों, कुछ हों लोकाचार।
लेखन को इनके बिना, मिले नहीं आधार।।
मिले नहीं आधार, सत्य के बिन उद्घाटन।
शिक्षा, संस्कृति, अर्थ, मूल्य पर भी हो चिंतन।।
बिना ज्ञान-विज्ञान, न वर्णन है प्रासंगिक।
विषय सृजन की रहें, विषमताएँ सामाजिक।।1।।

सुनिए सबकी बात पर, रहे सहज अभिव्यक्ति।
तथ्यपरक हो दृष्टि भी, करें न अंधी भक्ति।।
करें न अंधी भक्ति, इसी में है अपना हित।
निर्णय का अधिकार, स्वयं सँग रखें सुरक्षित।।
कुछ करने के पूर्व, उचित को हिय में गुनिये।
सहमति जिसके संग बने उसकी ही सुनिये।।2।।

करिये नित निज कार्य सब, करके यही विचार।
सबके हित सद्भाव हो , हो सुमधुर व्यवहार।।
हो सुमधुर व्यवहार, प्रेम तो है अनुपम धन।
स्वतः मिटे हर भेद, मिले यदि मन से हर मन।।
सहयोगी रख भाव स्वजन के दुख भी हरिये।
मिटे न मर कर नाम, काम ऐसे भी करिये।।3।।

जीवन हो यदि हे सखे! हो वह वृक्ष समान।
देकर जो सर्वस्व ही, करे जगत-कल्याण।।
करे जगत-कल्याण-त्राण यह स्वार्थ बिना नित।
है इसके फल-फूल-मूल तक में सबका हित।।
दे यह सबको छाँव, जलाए पर अपना तन।
हों ऐसे आदर्श सफल तब ही है जीवन।।4।।

-रामबली गुप्ता

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by रामबली गुप्ता 3 hours ago

हार्दिक आभार सुशील भाई जी

Comment by रामबली गुप्ता 3 hours ago

हार्दिक आभार समर भाई साहब

Comment by Sushil Sarna 22 hours ago
आदरणीय रामबली जी बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति हुई है । हार्दिक बधाई सर
Comment by Samar kabeer yesterday

भाई रामबली गुप्ता जी आदाब, बहुत अच्छे कुण्डलिया छंद लिखे आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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