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बहुत अच्छी है या रिश्वत बुरी है

वो जो कहते थे के चाहत बुरी है

दिवाने हो गए हालत बुरी है

बना अंधा फखत मगरूर कर दे

बढे गर इस कदर ताकत बुरी है

पचा पाए नहीं खैरात की जो

वही कहते हैं के दावत बुरी है

गँवा चैनो सकूँ ईमान अपना

पता पड़ता है के दौलत बुरी है

कहो मत बेबफा हमको हमनवा  

क़ज़ा दे दो न ये जिल्लत बुरी है

उसे लगता है दिल्लगी हँसना

मेरे हँसने की यूँ आदत बुरी है  

कतारों में खड़े रहना है कठिन

बहुत अच्छी है या रिश्वत बुरी है

बचाने तेल बुझते “दीप” घर के

पडोसी सोचते फुरकत बुरी है

संदीप पटेल “दीप”

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 31, 2013 at 4:28pm
बहुत सुन्दर भाव रचना, इन्सान मज़बूरी में कुछ भी करने को मज़बूरी मान लेता है 
अक्सर दफ्तरों में चक्कर लगते लगते थक कर रिश्वत देकर काम निकालने को विवश 
हो जाता है । इसी तरह बुरी चीज की लत लग गयी, चाहत है भले बुरी है । बधाई संदीप जी 
Comment by Dr.Ajay Khare on January 31, 2013 at 4:06pm

sandeep ji rachna chubhti si lagi badhai

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 31, 2013 at 4:02pm

वाह मित्रवर वाह बहुत ही सुन्दरता से लिखी गई इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 31, 2013 at 2:03pm

पचा पाए नहीं खैरात की जो

वही कहते हैं के दावत बुरी है............बहुत खूब.

 

कतारों में खड़े रहना है कठिन

बहुत अच्छी है या रिश्वत बुरी है..........उलझन है,हमारी ही खड़ी की हुई.

भाई संदीप जी सादर, वाह! सभी अशार सुन्दर हैं. बधाई स्वीकारें.

Comment by ram shiromani pathak on January 31, 2013 at 1:44pm

वाह संदीप जी, उत्तम रचना हार्दिक बधाई मित्र !!!!!!!

Comment by राजेश 'मृदु' on January 31, 2013 at 11:49am

वाह संदीप जी, आपने तो हिला दिया  । मस्‍त कर दिया आपने तो व्‍यंग्‍य, हकीकत, सबकुछ एक साथ, मजा आ गया

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