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ग़मों के घाव अभी भरे नही i
दवा में लगता मिला ज़हर है i i

बेनाम बस्ती में लोग रहते है  i
उन्ही बस्तियों से बना शहर है  i i

आदमी -आदमी को नहीं जाना  i
ज़िन्दगी सात दिनों का सफ़र है  i i

नदियाँ  भी डरती है भरने से  i
उनसे लगी बड़ी सूखी नहर है  i i

खामोश आज सभी हवायें है  i
वक़्त का उनपर भी असर है  i i

मै  भूला अपना रास्ता आज  i
पता नहीं जाना मुझे किधर है  i i

मौलिक /अप्रकाशित

दिलीप कुमार तिवारी

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on July 27, 2013 at 1:02am

सुन्दर प्रयास है दिलीप जी
बने रहें ...

Comment by राज़ नवादवी on July 19, 2013 at 9:41am

बहर की बात नहीं जानता, रदीफ़ और काफिया तो है, मतले का शेर नहीं है. 

नदियाँ  भी डरती है भरने से  i
उनसे लगी बड़ी सूखी नहर है  i i अच्छा कहा है. 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 18, 2013 at 7:26pm

सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई..आदरणीय दिलीप जी

Comment by विजय मिश्र on July 17, 2013 at 1:02pm
रचना सुन्दर और सुगम्य है , बधाई दिलीपजी
Comment by Ketan Parmar on July 17, 2013 at 11:36am

22 22 22 22 2 is matra kram par likhne ki koshish kare

udaharan ke tuar par nich likhi rachna padhe ek matla or ek sher pesh kartaa hu

ख्वाब दिखाकर दिलबर गायब है
रातो का वो मंज़र गायब है।।



जिसमे डूबी चाहत की किस्ती।
यारो एक समन्दर गायब है।।

KETAN PARMAR (ANJAAN)

Comment by Ketan Parmar on July 17, 2013 at 11:35am

Dr.Prachi Singh

Apse main bhi agree karta hu mam

Dilip Ji yaha par kafi achi achi ghazal kahi hai shayero ne aap unhe padhe unki vidha dekhe aur fir aapni isi rachna me sudhar kare. aapke vichar achhe hai.

Saadar sweekare


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 17, 2013 at 7:56am

आ० दिलीप जी,

प्रस्तुति गज़ल नहीं है..बिना काफिये के, बिना बह्र के गज़ल कैसे?

आप गज़ल की कक्षा के पाठों को ज़रूर देखें ताकि मूलभूत बातों को समझ सकें.

सादर 

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