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ग़ज़ल -निलेश 'नूर'- वक़्त ज़ाया करो, न राहों में....

२१२२ १२१२ २२   
.
वक़्त ज़ाया करो, न राहों में,
मंजिलों को रखो निगाहों में.
.

फूल ही फूल दिल में खिलते है,
आप होते हो जब भी बाहों में.
.

है नुमाया पता नहीं क्या कुछ,
और क्या कुछ छुपा है चाहों में.
.

तख़्त ताज़ों को ये उलट देंगी,
वो असर है मलंग की आहों में.
.

है डराती मुझे मेरी वहशत,
तू मुझे ले ही ले पनाहों में.
.  

आज है वक़्त तू संभल नादां,
क्यूँ फंसा है बता गुनाहों में.
.

साथ देने लगे हो आंधी का,    
तुम गिने जाओगे तबाहों में.
.

दिल न काबू में रख सके अपना,
आज होते वगरना शाहों में.   
.

चाहता ‘नूर’ था फ़क़त इतना,
दम वो तोड़े तुम्हारी बाहों में. 
.  

निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित 
 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 27, 2013 at 8:16am

शुक्रिया विशाल जी ... आभार 

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on October 26, 2013 at 11:05pm

चाहता ‘नूर’ था फ़क़त इतना,
दम वो तोड़े तुम्हारी बाहों में. 

वाह - वाह.......क्या कहने......!!!!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 25, 2013 at 7:51pm

शुक्रिया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 25, 2013 at 4:42pm

//वक़्त ज़ाया करो, न राहों में,
मंजिलों को रखो निगाहों में.//  बहुत अच्छी बात कही आदरणीय नूर साहब बधाई स्वीकार करें

अच्छी ग़ज़ल है दाद कुबूल करें

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 25, 2013 at 1:18pm

धन्यवाद सौरभ सर, आगे से संभल के स्थान पर सँभल का प्रयोग करूँगा
आभार ... 

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 25, 2013 at 1:07pm

हार्दिक आभार आदरणीय श्री सौरभ सर, आदरणीय निलेश जी अब आपको स्पष्ट हो गया होगा. सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 25, 2013 at 1:03pm

सुन्दर प्रस्तुति भाईजी. फूल ही फूल वाले शेर के लिए विशेष बधाई..

आपने सँभल की मात्रा सही बतायी है  -- १२

लेकिन सँभल के पर अनुस्वार देने की गलत परिपाटी चल पड़ी है.  यही कनफ्यूजन का मुख्य कारण है.

सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 25, 2013 at 12:53pm

धन्यवाद  अरुन शर्मा 'अनन्त' जी ...
संभल का मात्रा भार १२ ही है .. जगजीत सिंह जी की गायी हुई एक ग़ज़ल देखें Come Alive से है ...

१२२/१२२/१२२/१२२ 

.

कोई पास आया सवेरे सवेरे
मुझे आज़माया सवेरे सवेरे

.

मेरी दास्तां को ज़रा सा बदल कर
मुझे ही सुनाया सवेरे सवेरे

.

जो कहता था कल संभलना संभलना
वही लड़खड़ाया सवेरे सवेरे

.

कटी रात सारी मेरी मयकदे में
ख़ुदा याद आया सवेरे सवेरे

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 25, 2013 at 11:30am

आदरणीय निलेश जी बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने सभी शेर उम्दा बन पड़े हैं बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

आज है वक़्त तू संभल नादां, (आदरणीय संभल की मात्रा 22 होती है)

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 25, 2013 at 8:00am

धन्यवाद आशुतोष जी, गिरिराज जी, बैद्यनाथ जी, सुशिल जी.
आदरणीय गिरिराज जी, ध्यानाकर्षण हेतु धन्यवाद  

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