1222/ 1222/ 1222/ 1222
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नहीं चलता है वो मुझ को जो कहता है कि चलता है,
यही अंदाज़ दुनियाँ का हमेशा मुझ को खलता है.
***
सलामी उस को मिलती है, चढ़ा जिसका सितारा हो,
मगर चढ़ता हुआ सूरज भी हर इक शाम ढलता है.
***
न तुम कोई खिलौना हो, न मेरा दिल कोई बच्चा,
मगर दिल देख कर तुमको न जाने क्यूँ मचलता है.
***
किनारे है बहुत पक्के, रखा है बांध कर जिन में,
वगरना आँख में अक्सर कोई दरिया उबलता है.
***
न जाने ढूँढता है क्या मेरी आँखों में वो हरपल,
न जाने कौन सा अरमान उसके दिल में पलता है.
***
जलाओ तुम चिराग़ों को मगर ये याद भी रखना,
चिराग़ों से कभी अपना ही घर आँगन भी जलता है.
***
करें क्या जब मुकद्दर ही बना बैठा है इक मुंसिफ़,
तो हक़ का हर मुक़दमा दिन- महीने -साल टलता है.
***
चले आओ, चले आओ, चले आओ, चले आओ,
चले आओ के देखो ‘नूर’ का अब दम निकलता है.
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निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
न जाने ढूँढता है क्या मेरी आँखों में वो हरपल,
न जाने कौन सा अरमान उसके दिल में पलता है----- बहुत खुबसूरत ग़ज़ल है ये आपकी आदरणीय निलेश जी , बधाई स्वीकार कीजियेगा
धन्यवाद मित्रो
किनारे है बहुत पक्के, रखा है बांध कर जिन में,
वगरना आँख में अक्सर कोई दरिया उबलता है............वाह! बहुत खूब
जलाओ तुम चिराग़ों को मगर ये याद भी रखना,
चिराग़ों से कभी अपना ही घर आँगन भी जलता है.............जानलेवा शेर हुआ
बहुत लाजवाब गजल, हृदय से बधाई स्वीकार करें आदरणीय निलेश जी
चले आओ, चले आओ, चले आओ, चले आओ,
चले आओ के देखो ‘नूर’ का अब दम निकलता है. maqte ka sher to wah wah wah .....
जलाओ तुम चिराग़ों को मगर ये याद भी रखना,
चिराग़ों से कभी अपना ही घर आँगन भी जलता है.
ढेरों दाद कबूल करें इन पंक्तियों पर, सादर
शुक्रिया गिरिराज जी, सारथी जी, राम शिरोमणि जी, चर्चित जी एवं सुनील जी.. आभार
बहुत सुंदर गज़ल कही है आ0 निलेश जी...
सलामी उस को मिलती है, चढ़ा जिसका सितारा हो,
मगर चढ़ता हुआ सूरज भी हर इक शाम ढलता है.......... वाह क्या कहने............. बधाई स्वीकारें इस गज़ल हेतु......
हर शेर लाजवाब...... कमाल की गजल हुई है भाई..... पर हां मकते को थोड़ा सा वक्त और देते तो शायद कुछ और बात होती :)
आदरणीय निलेश साहिब ....बहुत बढ़िया व सजी हुई ग़ज़ल कही है आपने ! लाजवाब ...कुछ अशआर सचमुच दमदार हैं ..मसलन
न तुम कोई खिलौना हो, न मेरा दिल कोई बच्चा,
मगर दिल देख कर तुमको न जाने क्यूँ मचलता है....
किनारे है बहुत पक्के, रखा है बांध कर जिन में,
वगरना आँख में अक्सर कोई दरिया उबलता है..
चले आओ, चले आओ, चले आओ, चले आओ,
चले आओ के देखो ‘नूर’ का अब दम निकलता है...और मक्ता तो वाकई ज़िन्दा व कमाल का हुआ है ..:)
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