नारी का मन
तुम समझ सकोगे क्या ? ...
कि मेरी झुकी समर्पित पलकों के पीछे
सदियों से स्वरहीन
मेरी मुरझाई आस्था आज
तुमसे कुछ कहने को आतुर है।
शब्द तो कई बार थे आए पर
भयग्रस्त थे ओंठ मेरे
थरथराए, कुछ कह न पाए
कि मानों नारी होने के नाते
मुझको कोई श्राप मिला हो।
सच तुमने कभी किसी नारी की
विक्षोभित
मूक पुकार सुनी है क्या ? ... ?
यह इक्कीसवीं सदी है
अभी भी कन्या-जन्म के बाद
कई घरों में चूल्हा नहीं जलता,
वहाँ मातम-सा होता है।
पर प्रसव-पीड़ा सह-सह कर
इस कन्या ने ही तो तुमको
तुम्हारे प्रिय पुत्र दिए हैं
और पुरुष होने के नाते
समाज ने तुमको
राज्याधिकारी बनाया
सिर पर तुम्हारे ताज रखा।
कौन सी विधि थी, और
कैसा विधान था उसका
कि नारी को कम और तुमको
अधिक अधिकार मिला ?
हाँ, मैं नारी हूँ, पत्नी हूँ, पर कभी
मैं किसी घर की बेटी भी थी।
क्या है विधि की विडम्बना कि
एक मुहँ से मुझको लक्ष्मी कहा
और फिर शादी के फेरों में मेरा
किसी ने कन्या-दान किया ?
दान ? कैसा दान ?
मेरा उस घर में होना
इतना भार था क्या ? ....... ?
हाँ, मैं नारी हूँ, पत्नी हूँ,
गलती मेरी भी है,
तुम्हें मुझसे दो इंच लम्बा देख
मैनें तुमको अपने से ऊँचा समझा,
और तुम्हें झट लगा कि मेरे आदर से
तुम और ऊँचे हो गए ...
और मैं ?
मैं कम हो गई थी।
मैं तुम्हारी बाँह पकड़ कर चलती थी,
और तुम्हें लगा तुम्हारे सहारे बिना
मैं दो कदम चल नहीं सकती थी।
कितने गलत थे तुम ?
मैं तो तुमको केवल
आदर दे रही थी,
और आज अपने श्रम से जब
मैं तुमसे अधिक शिक्षित हूँ,
‘आफ़िस’ में ऊँचे पद पर हूँ,
कुछ है जो तुम्हें अच्छा नहीं लगता,
तुम्हारे पौरुष को खलता है,
शनै-शनै तुमको कुरेदता है।
सुनो, यह सच है न ?
पर नारी होने के नाते
मैं आदतन हर बार
तुमसे क्षमा माँग लेती थी,
उसी में तुम्हें शांति मिलती थी।
कभी सोचा तुमने कि उस पल
अकेले मुझ पर क्या बीतती थी ?
जब कभी भी मेरे
रुके-रुके-से आँसू टपके
उस पल दो शब्दों से सहला देना
यह तुम्हारी कलात्मकता रही
और मेरा शीघ्र संतुष्ट हो जाना,
मेरी प्रसमता, मेरी कमी रही,
मैं स्वयं को उससे ठगती रही,
और तुम्हें लगा तुम्हारी जीत हुई।
यह कैसी जीत थी तुम्हारी ?
याद हैं तुम्हें वह रातें,
जब पी कर, पिला कर,
तुम घर देर से लौटे ?
मैं दहलीज़ पड़ खड़ी तुम्हारी राह देखती,
" ठीक तो हो " मेरे बस इतना कहते ही
तुम्हारे तेवर चढ़ जाते,
परोसी थाली को ठेल
तुम मुझको दुतकार देते थे।
कभी सोचा, कभी जाना तुमने
उस पल तुमने क्या किया ?
तुम,......तुम सीधे सोने चले गए,
पर नारी हूँ न, मैं फिर भी
पास तुम्हारे चली आई।
मेरी आत्मा तड़पी,
मेरा खून बौखला उठा,
सुनो, कब समझोगे तुम मेरी व्यथा ?
आज एक बात पूछूँ तुमसे ?
श्रद्धा, संयम, सार्थकता, सेवा,
समर्पण, पतिवर्ता, धर्म की धरोहर,
यह सब ....
यह सब कब से केवल
नारी के कंधे पर क्यूँ लदे हैं ?
तुम, चुप क्यूँ हो,
क्या बात मेरी भाई नहीं तुमको ?
अब लगता है मुझको
सीता का दोष यह नहीं था कि उसने
लक्ष्मण की बनाई लकीर को लाँघा,
दोष यह था कि सहज भाव से उसने
साधू रूप रावण में साधू देखा,
रावण न देखा।
हर नारी ने अपने पति में
पावन सुर देखा,
भीतर छिपा असुर न देखा ?
तुम कहाँ समझोगे ?...
कि अपनी इच्छायों को
वाष्पीकृत करती,
तुमसे दूर होने की चाह में भी
मैं तुम्हारे पास रही,
और तुम ?...
तुम पास हो कर भी मुझसे दूर रहे।
बेअसूलों पर आधारित तुम्हारी
नीतियों से कुंठित
मैंने कुछ कहा तो तुमने
आवाज़ के दम से मुझको शांत किया था,
गलती तुम्हारी और आरोप मुझ पर ?
गरूर ? क्यों...और कैसा गरूर ?
यह कैसा न्याय है तुम्हारा ?
तुम समझ भी सकोगे क्या ?...
कि किसी का अस्तितवहीन होना
घुट-घुट कर जीना क्या होता है ?
बुरा न मानो, मैं नारी हूँ,
बरसों से पीड़ा संजोय थी,
आज कटोरी लुड़्क पड़ी।
फिर भी तुम्हारे लिए मुझमें
विनम्रता है,
मृदु शालीनता है, आभार है,
और है तुम्हारे सुख हेतु
प्रभु से विनीत प्रार्थना यही
कि तुम सुखी रहो, समपन्न रहो।
तुम कब समझोगे ?....
कि नारी का कोमल मन
क्या होता है ?
.........
-- विजय निकोर
( मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//नारी मन के दर्द की गहराई तक पहुंचना हर किसी के बस की बात नहीं होती। मगर आपके भाव और शब्द उस गहराई के बहुत क़रीब तक पहुंचे हैं //
जी, आपने ठीक कहा, नारी के मन की व्यथा को जानना आसान नहीं है, परन्तु मेरे लिए यह कभी कठिन भी नहीं रहा। यह इसलिए कि मैंने एक बहन और एक बुआ की व्यथा को, और उनके लिए मेरे माता-पिता के दर्द को बहुत पास से देखा है।
आपने रचना को समय दिया, और इस प्रकार सराहा, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ, भाई योगराज जी।
नारी मन के दर्द की गहराई तक पहुंचना हर किसी के बस की बात नहीं होती। मगर आपके भाव और शब्द उस गहराई के बहुत क़रीब तक पहुंचे हैं. जिसके लिए आपको हार्दिक बधाई देता हूँ आ० विजय निकोर जी.
नारी मन की ऐसे गहरी वेदना जो कोई अपना ही जान सकता है | बहुत सुन्दर और मार्मिक अभिव्यक्ति जो गहरे भाव लिए है |
साथ ही नारी मन के प्रति सुन्दर और सार्थक सन्देश भी रचना में निहित है | आपको ढेरों बधाईयाँ आदरणीय श्री विजय निकोरे
जी | सादर
लाजवाब.......
शब्द नहीं मेरे पास क्या कहूँ.....नारी मन को जिस तरह से आपने अपने लफ्ज़ों में सजाया और और बयां किया ........हर शब्द लाजवाब बहुत बहुत खूब ...........बहुत बहुत बधाई आपको ......
आदरणीया वंदना जी:
मैंने नारी का दर्द नारी की आँखों से जाना है,
नारी के कोमल ह्रद्य को छू कर जाना है,
अपनी सगी बहन के दर्द से जाना है।
आपने इस कविता की उदात्त सराहना की,
आपका हार्दिक आभार। प्रार्थना है हम सभी मिल कर
समाज में नारी के लिए कुछ कर सकें ....!
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीया कुन्ती जी:
आपकी प्रतिक्रिया में नारी के प्रति भाव सच्चाई से भरे हैं ....
भगवान करें वह दिन शीघ्र आए जब हर नारी अच्छे व्यवहार की
पात्र हो, उसे घर में, ससुराल में, समाज में, अपना योग्य स्थान मिले।
इसके लिए हम सभी को अपना-अपना योगदान करना होगा।
कुन्ती जी, कविता के भावों की अभिस्वीकृति के लिए हार्दिक आभार।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
vijay ji , namaskar,trikaal naree ka jo chitran apne kia hai,mai kia kahoo....Naree hone ka vidhanbana....ya pida sahne ka vardaan...har yug mein naree ki yehi stithi rahi hai.apne bahut hi clear aur tikha varnan kia hai.Naree Maharanee ho ya dasee useh samaj mein ghar mein santulan banane ke liye samjawta to karna hi padta hai.ro ke ya hans ke.Sansar maen bahut kam log hai jo naree ko sahi darza dete hai.Naree mane ka chitran karne ke liye apko bahut bahut dhaniawad.
आदरणीय योगी जी:
कविता की सराहना के लिए आभार।
विजय निकोर
आदरणीय लक्ष्मण जी:
कविता की सराहना के लिए आभारी हूँ।
विजय
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online