जलावन
शहर की सरकारी डिस्पेंसरी में छांटे गए पेड़ो की टहनियों ने उसकी आँखों में चमक पैदा की |हर चौथे रोज़ वो छोटे सिलिंडर में 100 रुपया की गैस भराती थी और अगर काम मिले तो एक रोज़ की मजूरी थी-250 रुपया | यानि इतना जलावन मतलब 800 रुपया |तीनों बच्चों के सरदी के पुराने कपड़े वो नए पटरी बज़ार से खरीद लेगी यानि कि उनकी दिवाली |वैसे भी उसका बेवड़ा-निठल्ला पति रोज़ उसकी गरिमा को तार-तार करता था फिर चौकीदार को तो उन जलावन का हिसाब भी देना होता है आखिर सर्दीयां आ रही थीं |
सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
"jalawan" sirshak to bahut achha chuna hai apne lekin sirshak sapast nahi ho paya hai...... ap dobara kosish kare sirshak ko pakadkar....
बहुत ही उलझा हुआ कथानक है भाई सोमेश कुमार जी, एकबारगी देखने से रचना समझ नहीं आती। स्पष्टता लघुकथा का गहना है, अत: इस तरफ ध्यान दें। अनावश्यक विवरण भी लघुकथा में भटकाव और अटकाव पैदा करता है, अत: इससे बचें।
आ.गणेश जी ,रचना को समय एवं मार्गदर्शन देने के लिए धन्यवाद ,सहमत हूँ की रचना में उस सूक्ष्मता एवं गुणों का आभाव हो जिस के कारण एक लघुकथा कहानी से अलग होती है |परंतु इसके लिए मेरे जैसे नव-लेखकों को लघुकथा के मुलभुत चरित्र का ज्ञान होना भी जरूरी है ,अगर मंच पर लघुकथा के बारे में कोई लेख उपलब्ध है तो सूचित करें |
विन्रम-पूर्वक
आपक अनुज
सोमेश जी, कई बार पढ़ा, बार बार पढ़ा, इस लघुकथा को होने का निहितार्थ ढूंढता रहा और अंततः असफल हुआ।
आदरणीय सोमेश जी विवशता के तर्क सटीक होते हैं |बहुत ही सुन्दर |सादर अभिनन्दन |
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