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" बाई , कल से काम पर मत आना "|

" लेकिन मेमसाब , मैंने तो कुछ नहीं किया "|

कहना तो चाहती थी " हाँ , तुमने तो कुछ नहीं किया लेकिन साहब को तो नहीं कह सकती मैं ", लेकिन जुबाँ ने साथ नहीं दिया |

बाई हिकारत से देखती हुई चली गयी , उसके अंदर कुछ दरक सा गया |

मौलिक एवम अप्रकाशित  

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Comment by विनय कुमार on February 21, 2015 at 5:21pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय उमेश कटारा जी ..

Comment by विनय कुमार on February 21, 2015 at 5:20pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी ..

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 21, 2015 at 10:25am

बहुत सुंदर . कम ही शब्दों में बहुत बेहतर लघुकथा. बधाई आदरणीय विनय जी

Comment by umesh katara on February 21, 2015 at 9:06am

सटीक

Comment by विनय कुमार on February 20, 2015 at 6:23pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी..

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 20, 2015 at 5:11pm

आदरणीय हरी जी ..सुंदर लघु रचना ..सच है करे कोई भरे कोई .. वाकई ऐसा ही हो रहा  है 

Comment by विनय कुमार on February 20, 2015 at 3:13pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी , प्रतीत तो कुछ ऐसा ही होता है , हा , हा .

Comment by Hari Prakash Dubey on February 20, 2015 at 10:58am

आदरणीय विनय जी, सुन्दर रचना ,बधाई आपको ! लगता है "बाई" सुन्दर रही होगी ..हा हा हा ! सादर 

Comment by विनय कुमार on February 20, 2015 at 1:45am

बहुत बहुत आभार वीर मेहता जी..

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 19, 2015 at 9:59pm
आद विनयकुमारजी सुन्दर लघुकथा की बधाई स्वीकार करे। कम से कम शब्दो में कही बेहतरीन रचना।

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