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कविता की चोरी(कविता,मनन कु.सिंह)

कविता की चोरी
कविता छपी किताब में
'कविता' हुई प्रसन्न,
नाम अपर का देख कर
रह गयी फिर सन्न।
बोली जाकर अंकिता से
'तू करती कविता की चोरी,
मुद्रित मेरी,तूने मरोड़ी।'
अंकिता अलग गुर्रायी-
'कहाँ की है तू रे लुगाई?
कविता क्या होती पता है?
यह मेरे रग-रग में बसी है,
मेरे कुल-सरोवर की हंसी है,
मेरी विरासत, आदत है,
मत समझ तिजारत है,
कविता चुराकर थी छपवायी,
मेरी थी,छपी तो आ चिल्लायी,
जा कहीं पल्ले पड़,ऐसा न कर।'
कविता थी चुप,तार-तार रूप।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

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Comment

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Comment by Manan Kumar singh on May 28, 2015 at 6:30pm
सभी आदरणीय मित्रों की स्नेहिल टिप्पणियों के लिए मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 28, 2015 at 12:38pm

इतनी ही कहूँगा विषय अच्छा उठाया गया .

Comment by Shyam Narain Verma on May 28, 2015 at 12:02pm
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 28, 2015 at 9:45am

वाह! आ० मनन जी सार्थक कविता!हार्दिक बधाई!

Comment by Neeraj Neer on May 28, 2015 at 9:01am

एक कटु सत्य को कविता के माध्यम से शब्द देने का सुंदर प्रयास ......


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 27, 2015 at 11:06pm

आदरणीय मनन जी बहुत अच्छे विषय पर सार्थक कविता प्रस्तुत हुई है 

इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई 

Comment by Samar kabeer on May 27, 2015 at 10:45pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी,आदाब,आपकी कविता का विषय ,और इस विषय के अनुरूप ही आपकी कविता बेहद पसंद आई,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

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