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" नीरू ! क्या हमारे दाम्पत्य में इतनी दूरी आ गई है , कि अब तुम्हे तस्वीरों में भी मेरा साथ गवारा नहीं ? "

" हम साथ थे ही कब ? बस कोरा भ्रम था । "

" हमारे बच्चे ...? क्या इन्हें भी भ्रम कहोगी ? "

" नहीं ...। तब मुझे हमारे बीच तीसरे की उपस्थिति का भान नहीं था । "

" लौट भी तो आया हूँ , चाहो तो गाँठ बाँध के रख लो , ताकि फिर कभी ...।"

" गाँठ तो तब भी बाँधी गई थी न , जब हमने सप्तपदी ली थी ? "

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 19, 2015 at 10:06pm

आदरणीय शशि जी बढ़िया लघुकथा हुई है. हार्दिक बधाई 

Comment by TEJ VEER SINGH on July 19, 2015 at 10:11am

आदरणीय शशि जी,पति पत्नी के बीच तीसरे की उपस्थिति गांठ पैदा करने के लिये पर्याप्त कारण होता है !और वह गांठ ज़िंदगी भर के लिए एक ज़टिल समस्या बनी रहती है!सुंदर कथा !हार्दिक बधाई!

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 18, 2015 at 11:26pm

रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाए ...गाँठ पड़ जाए 

मेरे ख्याल से गाँठ शब्द अब प्रतिस्थपित कर देना चाहिये .  करकट रोग हो जाता है गांठों में , 

सुन्दर कथा हेतु बधाई 

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