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मन उस आँगन ले जाए ( गीतिका )

 

आकर साजन तू ही ले जा क्यूँ ये सावन ले जाए

अधरों पर छायी मस्ती ये क्यूँ अपनापन ले जाए

 

भिगो रहा है बरस-बरस कर मेघ नशीला ये काला

कहीं न ये यौवन की खुश्बू मन का चन्दन ले जाए

 

कड़क-गरज डरपाती बिजली पल-पल नभ में दौड़ रही

कहीं न ये चितवन के सपने संचित कुंदन ले जाए

 

बिंदी की ये जगमग-जगमग खनखन मेरी चूड़ी की,

बूँदों की ये रिमझिम टपटप छनछन-छनछन ले जाए

 

पुहुप बढाते दिल की धड़कन शाखें नम कर डोल रहीं

कहीं न अब  अँगड़ाई का फन भीगा कानन ले जाए  

 

बढ़ी जा रही भीग-भीगकर चिकुर जाल की ये उलझन

कुन्तल से हरियाला तरुवर हर्षित उपवन ले जाए

 

रुनझुन-रुनझुन करती पायल बिछिया से कह आयी है

सारे बंधन तोड़ सखी अब मन उस आँगन ले जाए.

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment by Sulabh Agnihotri on September 8, 2016 at 9:57am

आदरणीय रक्ताले जी ! पसंद तो सारे ही युग्म आये उल्लेख उन्हींका किया है जो बहुत-बहुत पसंद आये।

आदरणीय यह हिन्दीपन ही तो आपकी रचनाधर्मिता की जान है - इससे किनारा करने की तो भूलकर भी मत सोचियेगा। वैसे ही कुछ अति-उत्साही लोग कहने लगे हैं कि हिन्दी है क्या - देवनागरी में लिखी हुई उर्दू ही तो है।

गजलियत नहीं है या कम है तो बनी रहे, रचना की गुणवत्ता में तो कोई कमी नहीं है। आ जायेगी तो बहुत अच्छी बात अन्यथा गीत तत्व तो भरपूर है।

आपने कहा एक तो हिन्दी रचना करने की आदत तो बन्धुवर रचनाकर्म तो अपनी भाषा में ही किया जा सकता है, अपनी भाषा से इतर रचनाकर्म तो दुराग्रह ही होता है जो बहुत कम सफल हो पाता है। ... और हिन्दी तो हम सारे भारत वासियों की निर्विवाद भाषा है।

- साभार


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 7, 2016 at 11:58pm

आपकी यह प्रस्तुति निर्दोष है आदरणीय अशोक भाई जी. मैंने आदरणीय सुलभ जी के प्रश्न का उत्तर दिया है. 

यह अवश्य है कि ग़ज़लों का शाब्दिक और चारित्रिक विन्यास गीति-प्रतीतियों से नितांत भिन्न होता है. और, आप इस ग़ज़ल के आगे जायें यह हमारी शुभकामना भी है. लेकिन यह चुनौती भी होगी, क्यों कि इस रचना की ऊँचाई एक तरह से आपने अपनी ओर से बहुत अधिक कर दी है. 

सादर

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 7, 2016 at 11:38pm

आदरणीय सुलभ अग्निहोत्री जी सादर, एक तो हिंदी रचना करने की आदत फिर कुछ इस बह्र का कमाल न चाहते हुए भी थोडा हिंदीपन इस चाल में आ ही जाता है. इसीलिए मैंने इसे गीतिका रूप में प्रस्तुत किया. आपको इसके कुछ युग्म पसंद आये इसके लिए मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 7, 2016 at 11:31pm

आदरणीय डॉ.आशुतोष मिश्र साहब सादर प्रस्तुति को मान देने के लिए दिल से आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 7, 2016 at 11:29pm

//नई नवेली प्रथम सावन में मायके जरूर आती है। आपके छंद के हर एक शब्द उसी विरहिन के मुख से निकले प्रतीत होते हैं। इसे पढ़कर तो वह बेचारी और जादा ‘ आह !!! ’ भरेगी। ... छंद पर वाह ! तो हम जैसे लोग ही कहेंगे।//...........हा हा हा.

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब सादर नमन, सुंदर प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने के लिए आपका दिल से आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 7, 2016 at 11:27pm

आदरणीय ब्रजेश कुमार 'ब्रज' जी सादर, प्रस्तुत रचना को पसंद कर उत्साहवर्धन करने के लिए आपका दिल से आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 7, 2016 at 11:26pm

आदरणीया कल्पना भट्ट जी सादर, प्रस्तुति को सराहाकर उत्साहवर्धन के लिए आपका दिल से आभार.देरी से उपस्थित होने के लिए क्षमापार्थी हूँ. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 7, 2016 at 11:25pm

आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, आपको यह रचना अच्छी लगी मेरी रचना श्रम सार्थक हुआ.

आज आदरणीय सुलभ अग्निहोत्री जी की प्रतिक्रिया पर आपका कहना सही है 'गजल वस्तुतः गीत नहीं है.होना भी नहीं चाहिए' मुझे लगता है हिंदीपन के कारण किसी भी अशआर को शेर कहने में थोड़ी असहजता होती है क्योंकि हिंदी की कहन में उर्दू वाली बात ला पाना आसान नहीं है. चूँकि मैं मूलतः हिंदी रचनाएं ही करता हूँ तो मेरे लिए तो सदैव यह चुनौती पूर्ण ही है. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 7, 2016 at 11:10pm

सर्वप्रथम मेरी प्रस्तुत रचना पर उपस्थित हुए गुणीजनों से क्षमा चाहता हूँ. पता नहीं क्यों मेरा आप सभी की अमूल्य प्रतिक्रियाओं पर ध्यान नहीं गया. किसी कारणवश अनियमितता बढ़ी है. पुनः क्षमाप्रार्थी हूँ.सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 7, 2016 at 10:56pm

//यदि अन्यथा न लें तो कहना चाहूँगा कि हम लोग जब रौ में आते हैं तो हमारी गीतिकायें गजलियत छोड़कर गीत क्यों बन जाती हैं ?//

यह एक अत्यंत सार्थक प्रश्न है, आदरणीय सुलभ भाई जी. 

ग़ज़ल वस्तुतः गीत नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. गीति-प्रतीतियों में जो कमनीयता होती है वह ग़ज़ल के लिए दोष की तरह है. ग़ज़ल का छुईमुईपन संवादों वाली मुलामियत अधिक है. दूसरे, गीत जबकि भावावृति हुआ करती है, ग़ज़लों में भावाग्रह होता है. मेरी समझ से यही वे मूल विन्दु हैं जिनके कारण ग़ज़ल का गीतों की आत्मानुभूत आश्वस्तियों से भेद हुआ करता है. 

यह अवश्य है, कि आदरणीय अशोक जी केलिए इस प्रस्तुति (ग़ज़ल) के आगे जाना एक चुनौती रहेगी. 

सादर

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