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ग़ज़ल 

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ 

उजाला  इसलिए  कमरे  में  पहले सा नहीं रहता 

हमारे  साथ  अब  वो चाँद   सा  चहरा नहीं रहता 

 

ग़िलाज़त  ही ग़िलाज़त  है सियासत तेरी बस्ती में 

यहाँ  आकर कोई भी  शख़्स पाकीज़ा नहीं रहता 

जूनूँ के दश्त में जिस दिन से दाख़िल हो गया हूँ मैं 

मेरी    दीवानगी    पे     दोस्तो   पहरा नहीं रहता 

उसी  को मंज़िल-ए-मक़सूद  मिलती  है ज़माने में 

जो  सर  पर  हाथ रख कर दोस्तो बैठा नहीं रहता

बुराई   पीठ   पीछे   जो  किया करते हैं लोगों की 

मैं   ऐसे   दोस्तों   के   साथ   दानिस्ता नहीं रहता 

ग़रीबों   में  ख़ुशी  तक़सीम  जो करता है वो इंसाँ

ख़ुदा  के फ़ज़्ल से दुनिया में अफ़सुर्दा नहीं रहता

हमारी  आपकी  तो बात ही क्या है 'समर' साहिब 

ख़ुदा  से   हाल  चींंटी  का भी पोशीदा नहीं रहता

'समर कबीर'

मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on January 11, 2023 at 6:58pm

बहुत शुक्रिय: जनाब दयाराम मेठानी जी ।

Comment by Samar kabeer on January 11, 2023 at 6:57pm

बहुत शुक्रिय: भाई लक्ष्मण धामी जी ।

Comment by Samar kabeer on January 11, 2023 at 6:56pm

बहुत शुक्रिय: ज़ैफ़ जी ।

Comment by Sushil Sarna on January 10, 2023 at 11:57am
आदरणीय समर कबीर जी आदाब, क्या बहतरीन अंदाज़ है, इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारक कबूल करें सर ।
Comment by Rachna Bhatia on January 10, 2023 at 11:16am

आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार।सर् बेहतरीन ग़ज़ल हुई।हर शे'र पर दाद क़ुबूल करें।

Comment by Dayaram Methani on January 7, 2023 at 5:24pm

ग़िलाज़त ही ग़िलाज़त है सियासत तेरी बस्ती में
यहाँ आकर कोई भी शख़्स पाकीज़ा नहीं रहता ........अति सुंदर।

ग़रीबों में ख़ुशी तक़सीम जो करता है वो इंसाँ
ख़ुदा के फ़ज़्ल से दुनिया में अफ़सुर्दा नहीं रहता.....वाह! लाजवाब बात कही आपने।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 7, 2023 at 3:17pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल के लिए ढेरों बधाइयाँ।

Comment by Zaif on January 6, 2023 at 7:18pm

क्या कहने, गुरु जी, लाजवाब। दिली दाद क़ुबूलें।

सादर।

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