खूबसूरत सपनों नें
कितनी रातों को मुझे जगाया,
कंटीले रास्तों पर
बेतहाशा दौड़ाया,
बार-बार गिराया..
फिर भागने के लिए
सम्हल सम्हल उठना सिखाया,
और मैं भागती गयी...
घायल पैरों के
फूटे छालों से
रिसते लहू की
परवाह किये बिना
बस भागती गयी...
पर
हमेशा
सिर्फ दो कदम के फासले पर
मुस्कुराते रहे सपने ..
मुझे भगाते रहे सपने..
हाथ आते ही
फिर रूप बदल
सिर्फ दो कदम से
मुझे ललचाते रहे सपने..
एक न बुझने वाली अगन में
मुझे जलाते रहे सपने..
पर
आज ......
जैसे ही
मन फेर इन सपनों से,
मैं खड़ी हूँ स्वयं की सम्पूर्णता में आनंदित....
तो
ये बेचैन हैं
फूलों की चादर बन
मेरे कदमों तले
बिखर जाने को...
ये सहला रहे हैं
मेरे पैर
अपनी सुकून भरी
ठंडक से...
और
मैं मुस्कुरा रही हूँ
प्रकृति की इस गोपनीयता पर !
Comment
Heartfelt thanks dear Mahima Shree ji
सुंदर काव्य-अभिव्यक्ति. बधाई स्वीकारें डॉ प्राची जी.
खूबसूरत सपनों नें
कितनी रातों को मुझे जगाया,
कंटीले रास्तों पर
बेतहाशा दौड़ाया,
बार-बार गिराया..
फिर भागने के लिए
सम्हल सम्हल उठना सिखाया,
आदरणीया प्राची जी , सुन्दर काव्यात्मक प्रस्तुति. बधाई.
प्रकृति और जीवन के अनोखे सपनो में बहुत सुन्दर तारतम्य स्थापित करती हुई बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति बधाई
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