माटी कहे कुम्हार से,
मुझको दे ऐसा आकार,
फिर न चक्का चढू कभी,
मिलूं संग निराकार ...
मुझे रंग दे नाम के रंग में,
पकुं मै तप की अगन में ,
सांचा ऐसा लादे मुझको ,
ढल जाऊं मै सत्कर्म में...
चिकना इतना करदे मुझे,
माया टिके न कोई इसपे,
घट ही में अविनाशी सधे,
हो जोत अंदर परकाशी रे ...
जग तारन कारण देह धरे,
सत्कर्म करे जग पाप हरे,
चित्त न डगमग मेरा डोले,
ध्यान तेरे चरणों में रहे...
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आदरणीया आरती जी! इस सुन्दर रचना के लिए बधाई!!!!!!!
आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक धन्यवाद..
बहुत अच्छा लगा पढ़ के .. इस सुन्दर रचना के लिए बधाई आप को आरती जी
आदरणीय विजय जी,रविकर जी एवं किशन जी ...आप सभी का हार्दिक धन्यवाद...
बढ़िया प्रयास-
आभार आदरेया-
जीवन को सुन्दर मार्गदर्शन -- सूफियाना भाव उभरता है और मर्म को स्पर्श भी करता है .
आदरणीय त्रिपाठी जी नमस्कार,मार्गदर्शन के लिए शुक्रिया..
आदरणीय बागी सर,आपको रचना पसंद आई ,आपका हार्दिक धन्यवाद ..
अच्छी रचना, भाव भजन के अच्छे लगें , बधाई इस प्रस्तुति पर ।
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