कौआ आज फिर प्यासा था। लेकिन अब उसे हर हर रोज़ कंकड़ पत्थर इकट्ठे करते हुए बहुत कष्ट होने लगा था. वह इस रोज़ रोज़ के संघर्ष से मुक्ति चाहता था। फिर एक दिन अचानक ही उसने भगवे वस्त्र धारण कर लिए, माथे पर लंबा सा तिलक लगाया एक बड़ी सी स्टेज सजा कर ‘कांव-कांव’ करने लगा। देखते ही देखते अनगिनत लोग उसके अनुयायी बन उसकी जय जयकार करने लगे । अब वह सयाना कौआ बड़े आराम से दिन भर ‘कांव-कांव’ करता, क्योंकि उसकी ‘भूख’ व ‘प्यास’ का जीवन भर के लिए जुगाड़ हो चुका था।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
यथार्थ गहन अर्थप्रधान लघुकथा
हार्दिक बधाई आ० रवि प्रभाकर जी
वाह वाह वाह .. अनुज रविजी.. ! क्या सटीक निशाना लगाया है आपने !
इस अत्यंत सफल लघुकथा पर हृदय से बधाई स्वीकारें. मन झूम गया है. बहुत खूब !
वैसे, वो कौआ तनिक जल्दिया गया. अगर वो भगवा ओढ़ने और मंच सजाने की जगह इस दिसम्बर मास की सुबह-सुबह कैरोल्स गाता रहता और देर शाम गये सुसज्ज मंच से माइक पर दिव्य-दृष्टि दे पाने का सुप्रचार किया करता, तो शायद उसकी भूख-प्यास की ही नहीं उसकी पीढियों के जीने की व्यवस्था होजाती. .. हा हा हा..
ऐसों का तो पूरा कॉर्पोरेट काम करता है ! उस लिहाज से भगवाधारी कौए बेचारे बहुत पिछड़े हैं ! .. :-))))
शुभ-शुभ
वाह !! आ0 रवि प्रभाकर जी बड़ी सुघडता से आपने प्रस्तुत की है कौवे की कांव कांव । बधाई इस लघु कथा के लिए ।
वाह ! इन्सान की नादानी पर कौवे की बुद्धिमानी भारी पड़ गई, बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय रवि जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें
बहुत खूब आदरणीय रवि सर बेहतरीन लघुकथा
वाह! क्या खूब लिखा है, कौवे की बुद्धिमानी ..आज ka कौआ !!!
आज का सच ......कम में ज्यादा कह दिया आपने..... बधाई सर
क्या खूब.... वाह!!!
आदरणीय रवि भाई जी सादर बधाई स्वीकारें...
सुन्दर लघुकथा हेतु बधाई............. |
आदरणीय रवि भाई , ढ़ोंगी साधुओं की अच्छी खिचाई की आपने , सुन्दर लघु कथा के लिये बधाई ।
वैचारिक रूप से केवल भगवा रंग के ढोंगियों पर निशाना बांधने के खिलाफ हूँ , जब ये हर वर्ग , हर रंग के कपड़े पहनने वाले ढोंगी कर रहे हों । जरा सोच के देखियेगा ॥ शायद मै सही लगूँ ॥
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