“अबे ओए, क्या तू ही दीनू है?” अपने दलबल के साथ अचानक आ धमके थानेदार ने अपनी रौबीली आवाज में पूछा
”जी सरकार मैं ही दीनू हूँ ......”
“क्या यही वो लड़की है जिसके साथ आज जबरदस्ती हुई है?” कोने में सिसकती लड़की की तरफ देखकर थानेदार की आंखों में गुलाबी से डोरे तैरने लगे।
“जी सरकार..........”
“जी सरकार के बच्चे... शिकायत क्यों नहीं की थाने में आकर....”
“जी, वो मुखिया जी ने समझौता..... ”
”देखिए साहिब..... कितने सारे रूपये” कांस्टेबल ने चारपाई की नीचे रखे कनस्तर में से नोट निकालते हुए कहा
“साले...... लड़की से धंधा करवाता है, और बड़े आदमियों को ब्लैकमेल करता है....।”
“नहीं सरकार ..... वो तो ......” दीनू की तो जैसे घिग्गी ही बंध गई।
“कब्जे में ले लो सारे पैसे, और बिठायों छोकरी को जीप में “पूछताछ” के लिए."
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई, आदरणीय रवि जी।
एक समय से होता आया है जाने कबतक ऐसा ही होता रहेगा.. मनुष्य मछलियाँ नहीं है, लेकिन व्यवहार अलग भी नहीं करता. जोरू की लुगाई या बेटियाँ ऐसे ही जीती हैं.
इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई रवि भाई.
एक अरसे बाद आपको मंच पर देखना भला लगा.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय कल्पाना रामानी जी, विजय मिश्र जी, महिमा श्री जी, जितेन्द्र जी, अन्नपूर्णा जी, गिरिराज जी व लक्ष्मण जी लघुकथा को पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद।
आदरणीय राजेश कुमारी जी
सादर ! आप सरीखे विद्धानों की टिप्पणी सदैव उत्साहित करती है। धन्यवाद।
आदरणीय डाॅ. प्राची सिंह जी,
सादर ! लघुकथा के मर्म को समझने के लिए आभार। आशा है कि भविष्य में भी आपका स्नेह मिलता रहेगा ।
उफ्फ !!!!
ऐसा भी कुछ घिनौने सच हो सकते हैं....
दीनू मुखिया पुलिस....के अपने अपने स्वार्थों में पिस तो बेचारी लडकी गयी ...और जाने कब तक ..
मर्मस्पर्शी लघुकथा आदरणीय रवि प्रभाकर जी
बहुत मार्मिक, इंसान कितना गिर चुका है उफ! ...एक सशक्त रचना के लिए बधाई आपको
बेहद मार्मिक , समाज का घृणित चेहरा देख कर क्रोध तो आता है पर अंपनी विवशता का क्या करें ..सादर
बहुत अच्छी लघुकथा, सच! हवस में इंसान क्या नही कर गुजरता है. क्या सही? क्या गलत ? कोई फर्क नही. लघुकथा पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीय रवि जी
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