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उठने लगा है दिल से मेरे ये सवाल क्यों- ग़ज़ल

221 2121 1221 212

उठने लगा है दिल से मेरे ये सवाल क्यों

इस तंगदिल जहाँ से करूँ अर्ज़े हाल क्यों

 

तुझसे रही न कोई शनासाई ऐ हयात

फिर बार-बार आये तेरा ही खयाल क्यों

 

हैं अश्क़बार और भी इस बज़्म में कई

ऐ दोस्त ये बता कि मेरी ही मिसाल क्यों

 

आयेंगे और लम्हे अभी तो बहार के

आखिर तुम्हें है शाखे शजर ये मलाल क्यों

 

कैसे बताये कोई मुकद्दर किसी का क्या

कल जो खिला चमन में वो अब पायमाल क्यों

 

जिनकी वफा का बोझ लिये चल रहा था मैं

उनको पता नहीं मेरा जीना मुहाल क्यों

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on April 5, 2015 at 9:49pm
बहुत खूबसूरत हृदय स्पर्शित युग्म आदरणीय।
Comment by Hari Prakash Dubey on April 5, 2015 at 9:19pm

आदरणीय  शिज्जु सर , बहुत सुन्दर , हार्दिक बधाई ! सादर 

हैं अश्क़बार और भी इस बज़्म में कई

ऐ दोस्त ये बता कि मेरी ही मिसाल क्यों....वाह  

आयेंगे और लम्हे अभी तो बहार के

आखिर तुम्हें है शाखे शजर ये मलाल क्यों....बहुत खूब !

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 5, 2015 at 6:59pm

तुझसे रही न कोई शनासाई ऐ हयात

फिर बार-बार आये तेरा ही खयाल क्यों

क्या बात है! क्या बात है! दिल से दाद हाजिर है आदरणीय!

Comment by Nazeel on April 5, 2015 at 4:40pm

आदरणीय  शिज्जु  शकूर भाई जी  बेहद  रचना के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on April 5, 2015 at 1:38pm
बेहतरीन ग़ज़ल दिलिदाद कबूल करें।
Comment by gumnaam pithoragarhi on April 5, 2015 at 12:06pm
आदरणीय शिज्जु भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, आजकल आप कमाल की गज़लें कह रहें है..............दाद कुबूल फरमाएं.
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 5, 2015 at 10:33am

आपकी ग़ज़ल पढना अपने आप में एक अनुभूति होती है एक अनुभव होता है ...
हमेशा की तरह शानदार ग़ज़ल के लिए बधाई 

Comment by दिनेश कुमार on April 5, 2015 at 9:06am
आदरणीय शिज्जू भाई, बेहतरीन ग़ज़ल हुई है। ढेरों दाद व मुबारकबाद भाई।
Comment by vandana on April 5, 2015 at 5:11am

उठने लगा है दिल से मेरे ये सवाल क्यों

इस तंगदिल जहाँ से करूँ अर्ज़े हाल क्यों

 

तुझसे रही न कोई शनासाई ऐ हयात

फिर बार-बार आये तेरा ही खयाल क्यों

 

हैं अश्क़बार और भी इस बज़्म में कई

ऐ दोस्त ये बता कि मेरी ही मिसाल क्यों

जिनकी वफा का बोझ लिये चल रहा था मैं
उनको पता नहीं मेरा जीना मुहाल क्यों
बहुत खूब, बहुत २  बधाई , आदरणीय शिज्जु जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 5, 2015 at 12:53am

आदरणीय शिज्जु भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, आजकल आप कमाल की गज़लें कह रहें है. एक एक अशआर पर झूम रहा हूँ. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. 

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