२२२२ २२२२ २२२२
दुनिया ने तो काँटे बोये कैसे कैसे
चुन-चुन कर हम कितना रोये कैसे कैसे
काँटों तक ही दर्द नहीं सीमित था अपना
बातों- बातों तीर चुभोये कैसे कैसे
तुमको देखा तो जाने क्यों आया जाला
मल-मल कर आँखों को धोये कैसे कैसे
एक हथेली दूर जहाँ पर दूजी से हो
हम नाते-रिश्तों को ढोये कैसे कैसे
काले काले मेघों की थी भूलभुलैय्या
उजले-उजले सूरज खोये कैसे कैसे
सिमटी बैठी थी भीतर चन्दन की खुशबू
आजू-बाजू विषधर सोये कैसे कैसे
जिन सपनों को फेंक दिया था घर से बाहर
पलकों ने वापस संजोये कैसे कैसे
पुछल्ला –
सूख चुका है भीतर से जज्बाती सागर
ग़ज़लों के अशआर भिगोये कैसे कैसे
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आ० मोहन सेठी जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका .
आ० गिरिराज जी ,इसमें काफ़िया ओये निर्धारित किया है तो बार बार दर / तक ले आ ये / ---अर्थात ले आये नहीं आ सकता तथा बार बार का दुहराव भी नहीं हो सकता क्यूंकि बार के बाद हमे एक लघु ही लेना पड़ेगा बह्र की डिमांड के अनुसार.
आ० समर कबीर भाई जी की इस बात से सहमत हूँ की यदि पिटारे में शब्दों की कोई कमी न हो तो ऐसा शब्द क्यों चुना जाए जो पाठकों को संतुष्ट न कर पाए अतः इस निष्कर्ष पर पँहुची हूँ की इस मिसरे में लो ये शब्द को बदलना ही उचित होगा |
अतः भाव वही रखते हुए इस मिसरे को यूँ कहने का प्रयास करती हूँ --
जिन सपनों को फेंक दिया था घर से बाहर
पलकों ने वापस संजोये कैसे कैसे
आप दोनों का review अनुमोदन प्रार्थनीय है सादर .
आदरणीय rajesh kumari जी बहुत खूबसूरत शेर हुए हैं ...सादर
दुनिया ने तो काँटे बोये कैसे कैसे
चुन-चुन कर हम कितना रोये कैसे कैसे
आदरणीया राजेश जी , अंतिम फैसला तो आपका ही रहेगा , लेकिन जहाँ तक मुझे मालूम है , 22 को 121 112 या 211 किया जा सकता है , फेलुन फेलुन वाले बह्र में -- इस लिहाज़ से -- बार बार दर / तक ले आ ये / कैसे कैसे -- 2222 / 2222 / 2222 , सुझाया मिसरा बहर मे लग रहा है ।
आ० गिरिराज जी ,आपने जो बातें सुझाई है वो स्वागत योग्य हैं दरअसल शब्दों की जगह आखर आखर तीर चुभोये किया था किन्तु उसमे उर्दू की रवानियत लाने के लिए ये कर बैठी क्यूंकि गायन में लफ़्ज लफ़्ज आ रहा था ओ की मात्रा गिर सकती है किन्तु बह्र में लिख नहीं सकते ...बातों बातों कैसा रहेगा ? सूख चूका है भीतर से जज्बाती सागर से संशोधित कर रही हूँ --फिर फिर वापस आये लो ये कैसे कैसे ---बार बार नहीं आ सकता बह्र के अनुसार
आदरणीया राजेश जी , गज़ल अच्छी कही है , शब्दों के दुहराव से मिसरे की खूबसूरती बढ़ गई है । लेकिन इसी कारण कुछ गलतिया भी हो गई हैं , जिसे कहना ज़रूरी है --
लफ्जों लहना ठीक नही है --- 1 - लफ्ज़ का बहु वचन अल्फाज़ होता है
वैसे ही -- 2- जज़्बात स्वयँ बहु वचन है , जज़्बातों का उपयोग ठीक नहीं है
3 -- फिर-फिर दर पे आये लो ये कैसे कैसे -- ये मिसरा सब कुछ सही हो के भी ऐसा लगता है कि फिर फिर के बदले बार बार किया जा सकता है -- बार बार दर तक ले आये कैसे कैसे - सोचियेगा शायद सही लगे ।
आ० समर भाई ,ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया जिन मिसरों की बात आपने की है तो भाई जी बस यही कहूँगी की जब कोई रचनाकार बिम्बात्मक कल्पनाओं की उड़ान भरता है तो वास्तविकता से बहुत दूर होता है जैसे सातवें आसमां की भी कल्पना होती है आसमां तो भाई जी एक ही होता है यहाँ सार्थक अवसर या रुपहली खुशियों को सूरज की उपमा दी है
दुसरे मिसरे में फिर फिर अर्थात दुबारा दुबारा आपने जो इस्स्लाह दी है उसमे काफ़िया ओये लुप्त हो गया है आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आ० डॉ० गोपाल भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से शुक्रिया मेरा लिखना सफल हुआ.
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