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जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना (ग़ज़ल)

१२२ १२२ १२२ १२२

 

मेरी नाव का बस यही है फ़साना

जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

 

सनम को जिताना तो आसान है पर

बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना

 

न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी

था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना

 

बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी

न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना

 

कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे

सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना

 

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी

बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना

----------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on March 29, 2016 at 7:51pm

मेरी नाव का बस यही है फ़साना
जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना
बहुत खूब आदरणीय .... बड़े सुंदर अशआर प्रस्तुत किये हैं आपने ... हार्दिक बधाई सर।

Comment by नादिर ख़ान on March 29, 2016 at 4:29pm

कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे

सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना

 

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी

बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना

खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बहुत मुबारकबाद आदरणीय धर्मेंद्र जी. आसान शब्दों में  अफसाना कह दिया । 

Comment by सूबे सिंह सुजान on March 29, 2016 at 1:00pm
बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना ।

बहुत अच्छा शेर कहा है बधाई बधाई
Comment by रामबली गुप्ता on March 28, 2016 at 3:22pm
अरे वाह क्या मजेदार ग़ज़ल रची है आदरणीय। सादर बधाई स्वीकार करें।
Comment by amod shrivastav (bindouri) on March 28, 2016 at 11:30am
वाह आ धर्मेन्द्र भाई जी क्या कहने
Comment by Samar kabeer on March 28, 2016 at 11:17am
जनाब धर्मेन्द्र कुमार जी आदाब,बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।

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