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बाँझ निवास (लघुकथा)राहिला

"अरी विभा देख जरा वहां"बस के आगे जा रहे वाहन की ओर इशारा करके सुधा बोली।

"क्या दिखाना चाह रही हो ,वो ट्रॉली?"

"हाँ,क्या ऐसा नहीं लग रहा उसे देख कर, जैसे सैकड़ो नन्हें मुन्ने नर्सरी के बच्चे पहली बार विद्यालय वाहन में सवार हो,झूमते ,गाते ,तालियाँ बजाते चले जा रहे हों।"

"फिर दौड़ाये तूने कल्पना के घोड़े"

"तो तू भी दौड़ाकर देख ,एक बार मेरी तरह।"

सुधा द्वारा चित्रित किये दृश्य को जब उसने ,उसकी नज़र से देखा तो भाव विभोर होकर बोली।

"कसम से सुधी! ये नर्सरी  वाहन में वृक्षारोपण के लिये जा रहे नन्हे पौधे ,हवा के साथ अठखेलियां करते वाकई मासूम बच्चों से लग रहे हैं।"

"बच्चे किसी के भी हों ,सुन्दर लगते हैं ना! एक जमाना था जब हर घर के आँगन या बाड़े में इन बच्चों से खूब रौनक हुआ करती  थी।"

"हाँ गाँव में तो अभी भी ग़नीमत है, लेकिन शहर में तो अब हर तरफ बाँझ निवास दिखाई देते हैं।"

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on July 10, 2016 at 12:34pm
मोहतरमा राहिला साहिब आदाब,बहुत अच्छी लगी आपकी लघुकथा शह्र के वातावरण पर अच्चा तंज़ किया है आपने बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 10, 2016 at 12:12pm

"हाँ गाँव में तो अभी भी ग़नीमत है, लेकिन शहर में तो अब हर तरफ बाँझ निवास दिखाई देते हैं।"...........वाह ! वाह ! सचमुच बढती जनसंख्या और विकास ने शहरों की हरियाली छीन ली है.सुंदर लघुकथा. बहुत-बहुत बधाई. सादर.

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 10, 2016 at 12:16am
'मानवीकरण'व प्रतीकों में सार्थक संदेश वाहक प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीया राहिला जी। वनस्पतियों का मानवीकरण तो ठीक है, लेकिन निवास का मानवीकरण अर्थात /बांझ निवास/ कहां तक उचित है, यह वरिष्ठजन ही बता सकेंगे।
Comment by Nita Kasar on July 9, 2016 at 8:27pm
पर्यावरण के प्रति सचेत करती सार्थक कथा,आज नही संभलेंगे तो फिर कब संभलेंगे बधाई आपको आद०राहिला जी ।
Comment by Rajendra kumar dubey on July 9, 2016 at 7:10pm
आदरणीय राहीला जी सच कहा आपने शहर में कांक्रीट के जगंल बनते जा रहे है और धीरे धीरे गांव भी इसकी चपेट में आ रहा है।एक सार्थक लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई

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