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तुम्हारे स्नेह की रंगीन रश्मि

मैं उद्दीप्त

गंभीर-तन्मय ध्यानमग्न

कहीं ऊँचा खड़ा था

और तुम

मुझसे भी ऊँची ...

वह कहकहे

प्रदीप्त स्फुलिंगों-से

हमारी वार्ताएँ मीठी

चमकती दमकती

आँखों में रोशनी की लहर-सी

तुम्हारी बेकाबू दुरंत आसमानी मजबूरी

बरसों पहले की बात

अचानक चाँटे-सी पड़ी

ताज़ी है आज भी

गुंथी तुमसे

उतनी ही मुझसे

बिंध-बिंध जाती है

वेदना की छाती को भी

अभी तक 

आत्मा के आस-पास

सूक्षमतम रुधिर कोषों में

तुम्हारे चले जाने पर मानो

क्षितिज को लगी कुल्हाड़ी

किसी खूँखार जानवर ने गालों को दांतों में

निर्दयता से दबोच दिया

उस दिन लगा कि जैसे 

मैं स्नेह की तीसरी मंज़िल से

धड़ाम-सा गिरा

इतना शीघ्र इस तरह 

कि पल भर भी अब तक  सोच न सका

क्या हुआ

क्यूँ हुआ

या

ज़रा-सी उंगली छुआते ही मानो

सिगरेट की राख झर गई कण-कण

बिखरी ऐसे कि उसका संपूर्ण होना तो दूर

समस्त कणों को समेटना भी असंभव

फटे हुए अँधेरे-सी

उसी में गिरफ़्तार

छूते ही बिखर-बिखर गई

और कुछ राख उदास

मानो हृदय-स्पर्शी निवेदन लिए

उंगली से चिपक गई

अभी तक सोचती-सी पड़ी

मेरी ज़िन्दगी के बड़े

या छोटे-से-छोटे गड्ढे में भी

वह ढरी हुई राख

अभी तक भरी रही है

उसके करुण हृदयभेदी बिलखते

निवेदन के मूक स्वर

अब खोखले सही

मुझको अभी तक साफ़ सुनाई  दे रहे हैं

शायद तुम्हें भी

अपनी नई मजबूरियों को ठेलते

कभी-कभी

            -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्राकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 21, 2016 at 5:08pm

आदरनीय बड़े भाई विजय जी , आत्मीय रिश्ते के बिछोह से उपजी वेदना को खूबसूरत शब्दों मे बान्धा है आपने । हार्दिक बधाइयाँ

Comment by vijay nikore on December 21, 2016 at 2:21pm

रचना की सराहना के लिए आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by vijay nikore on December 21, 2016 at 12:11pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया कल्पना जी।

Comment by Mahendra Kumar on December 21, 2016 at 11:03am
बहुत उम्दा कविता है आदरणीय विजय जी। आपको ढेरों बधाई। सादर।
Comment by Sushil Sarna on December 20, 2016 at 12:54pm

मेरी ज़िन्दगी के बड़े
या छोटे-से-छोटे गड्ढे में भी
वह ढरी हुई राख
अभी तक भरी रही है
उसके करुण हृदयभेदी बिलखते
निवेदन के मूक स्वर
अब खोखले सही
मुझको अभी तक साफ़ सुनाई देते हैं
शायद तुम्हें भी
अपनी नई मजबूरियों को ठेलते
कभी-कभी

वाह आदरणीय निकोर साहिब .... गज़ब की प्रस्तुति हुई है .... अंतर्मन के भावों को विभिन्न बिम्बों के माध्यम से आपने जिस शिद्दत से उकेरा है वो काबिले तारीफ़ है .... दिलकश शब्द चयन , निर्बाध प्रवाह , भावों की वो गहनता जो पाठक को अंत तक बांधे रखती है .... अप्रतिम अप्रतिम अप्रतिम सर .... हार्दिक बधाई संग नमन के स्वीकार करें सर।

Comment by vijay nikore on December 19, 2016 at 5:07pm

कविता की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुनील प्रसाद जी

Comment by vijay nikore on December 14, 2016 at 4:39pm

//बहतरीन बिम्बों के सहारे बहुत ही उच्च कोटि की कविता से नवाज़ा है आपने मंच को//

इन मीठे शब्दों से मुझको मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय मित्र समर कबीर जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 6, 2016 at 9:03pm
आदरणीय विजय निकोर सर वेदना को शाब्दिक करती प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई निवेदित है सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 6, 2016 at 6:04pm

तुम्हारी बेकाबू दुरंत आसमानी मजबूरी------------आदरणीय आपकी हर कविता में प्रायः इस मजबूरी का जिक्र आता है और मैं  आंखें  बंद कर  कर सोचता हूँ  वह निर्मम मजबूरी क्या थी जिसने कवि  को इतना मथ कर रखा है . एक और भावपूर्ण प्रस्तुति हेतु सादर बधाई .  

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 6, 2016 at 5:47pm
बेहद गम्भीर भाव । हार्दिक बधाई आदरणीय ।

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