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अपने घर लौटा तो कोई था न स्वागत के लिए

घर के दरवाजों पे ताले थे शरारत के लिए

 

जब कहा मन ने तो ‘मोबाइल’ उठाकर बात की,

अब प्रतीक्षा कौन करता है किसी ख़त के लिए?

 

मैं बरी होकर भी दोषी हूँ स्वयं की दृष्टि में,

कुछ अलग कानून है मन की अदालत के लिए

 

बाहुबल से भी अधिक धन-बल जरुरी हो गया

हाँ, तभी जाकर जुटा जन-बल सियासत के लिए

 

अब न वैसे दोस्त हैं, परिजन भी अब वैसे नहीं,

आप किसके पास जायेंगे शिकायत के लिए?

 

हानि अथवा लाभ का चश्मा चढ़ा लेने के बाद-

वो बहुत चिंता नहीं करती है ‘अस्मत’ के लिए

 

झोंपड़ी की छत मिली सौ कोशिशों के बाद ही

एक भी कोशिश न की आकाश की छत के लिए

 

ज़हीर कुरैशी

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Mohammed Arif on May 4, 2017 at 8:08pm
आदरणीय ज़हीर क़ुरेशी जी आदाब,ओबीओ मंच पर आपका स्वागत है। बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । कुछ शे'र तो बहुत ही सामयिक हैं । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 4, 2017 at 6:41pm
मुहतरम जनाब ज़हीर साहिब, अच्छो ग़ज़ल हुई है ,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें ----
ख़त क़ाफ़िया दूसरे शेर में सही नहों है ,शेर 3 के उला मिसरे में शायद "की" शब्द टाइप में छूट गया है---स्वयं की दृष्टि में
Comment by Samar kabeer on May 4, 2017 at 10:47am
जनाब ज़हीर क़ुरैशी साहिब आदाब,ओबीओ के मंच पर आपका स्वागत है ।
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
दूसरे शे'र में 'ख़त'क़ाफ़िया उर्दू के लिहाज़ से ग़लत है,क्योंकि यहां 'त'क़ाफ़िया है और ख़त में 'तोय'सौती क़ाफ़िया कहना पड़ेगा इसे ।
तीसरे शे'र के ऊला मिसरे में टंकण त्रुटि के कारण शायद एक शब्द छूट गया है,देखियेगा ।

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