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ग़ज़ल - आदमी वो सरफिरा, लगता तो है ( गिरिराज भंडारी )

2122   2122  212  

दूध में खट्टा गिरा लगता तो है

काम साज़िश से हुआ,लगता तो है

 

था हमेशा दर्द जीवन में, मगर  

दे कोई अपना, बुरा, लगता तो है

 

बज़्म में सबको ही खुश करने की ज़िद

आदमी वो सरफिरा, लगता तो है

 

सच न हो, पर गुफ़्तगू हो बन्द जब,

बढ़ गया कुछ फासिला, लगता तो है 

 

गर मुख़ालिफ हो कोई जुम्ला, मेरे

दोस्त अब दुश्मन हुआ, लगता तो है

 

ज़िन्दगी की फ़िक्र जो करता न था

मौत से वह भी डरा लगता तो है

 

खलबली जो है अंधेरों में अभी

सूर्य का रस्ता खुला, लगता तो है

******************************* 
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 6:55pm
"जान कर ऐसा हुआ लगता तो है"
ये मिसरा बहतर है ।
मेरे कहे को मान देने के लिये धन्यवाद ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 7, 2017 at 6:30pm

आदरणीय समर भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
साजिशन वाले मिसरे को अगर ऐसे कहूँ तो ?
जान कर ऐसा हुआ , लगता तो है    --- अगर और कुछ आपको सूखे तो बताइयेगा

ज़िन्दगी की फ़िक्र जो करता न था   --  यह सुधार बहुत सही है --  मै इसे स्वीकार करता हूँ , सलाह के लिये आपका हृदय से आभार ।

Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:39pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

मतले के सानी मिसरे में 'साजिशन'कोई शब्द ही नहीं है,देखियेगा ।
'ज़िन्दगी की फ़िक्र जो करता नहीं
मौत से वो भी डरा लगता तो है'
ऊला मिसरा अगर इस तरह करें तो रवानी बढ़ जायेगी :-
'ज़िन्दगी की फ़िक्र जो करता न था
मौत से वो भी डरा लगता तो है'

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