भाषा बड़ी है प्यारी जग में अनोखी हिन्दी,
चन्दा के जैसे सोहे नभ में निराली हिन्दी।
पहचान हमको देती सबसे अलग ये जग में,
मीठी जगत में सबसे रस की पिटारी हिन्दी।
हर श्वास में ये बसती हर आह से ये निकले,
बन के लहू ये बहती रग में ये प्यारी हिन्दी।
इस देश में है भाषा मजहब अनेकों प्रचलित,
धुन एकता की डाले सब में सुहानी हिन्दी।
शोभा हमारी इससे करते 'नमन' हम इसको,
सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी।
आज हिन्दी दिवस पर
22 122 22 // 22 122 22 बहर में
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
ख़ुदा-ए-सुखन मीर की ग़ज़ल है ..
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होती है गरचे कहने से यारो पराई बात
पर हम से तो थंबे न कभू मुँह पर आई बात.
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जाने न तुझ को जो ये तसन्नो तू उस से कर
तिस पर भी तो छुपी नहीं रहती बनाई बात.
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लग कर तदरौ रह गए दीवार-ए-बाग़ से
रफ़्तार की जो तेरी सबा ने चलाई बात
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कहते थे उस से मिलिए तो क्या क्या न कहिए लेक
वो आ गया तो सामने उस के न आई बात
.
अब तो हुए हैं हम भी तिरे ढब से आश्ना
वाँ तू ने कुछ कहा कि इधर हम ने पाई बात
.
बुलबुल के बोलने में सब अंदाज़ हैं मिरे
पोशीदा कब रहे है किसू की उड़ाई बात
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भड़का था रात देख के वो शो'ला-ख़ू मुझे
कुछ रू-सियह रक़ीब ने शायद लगाई बात
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आलम सियाह-ख़ाना है किस का कि रोज़-ओ-शब
ये शोर है कि देती नहीं कुछ सुनाई बात
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इक दिन कहा था ये कि ख़मोशी में है वक़ार
सो मुझ से ही सुख़न नहीं मैं जो बताई बात
.
अब मुझ ज़ईफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो
जाती नहीं है मुझ से किसू की उठाई बात
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ख़त लिखते लिखते 'मीर' ने दफ़्तर किए रवाँ
इफ़रात-ए-इश्तियाक़ ने आख़िर बढ़ाई बात.
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इस ग़ज़ल की तक्तीअ करेंगे तो अरकान होंगे
२२१/ २१२१/ १२२१/ २१२ यहाँ +1 की छूट ली गयी है बा...त में
आप पायेंगे कि काफ़िया में ई की मात्रा गिराकर इ पढ़ी गयी है अत: आप की ग़ज़ल न बेबहर है न क़ाफिया दोष है ....
जो दोष बताये उससे कहियेगा कि "जाओ पहले मीर के साइन ले कर आओ, फिर जहाँ कहोगे मैं साइन कर दूँगा"
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आप ने अरकान क्या ग़लत लिख दिए..लोग आपको बेबहर साबित करने पर तुल गये.
आप अरकान
२२१२/१२२// २२१२/१२२ कर लें
सादर
आ. बासुदेव जी,
अच्छी ग़ज़ल है ...आपको बधाई..
अरकान और बहर पर चल रही चर्चा से आप विचलित न हों....
जो ग़ज़ल कहते हैं उन्हें ग़ज़ल पढ़ने तरीका भी पता होता है... जो नहीं कह पाते वो अरकान में उलझते रहते हैं...
आपकी ग़ज़ल स्थापित अरकान
२२१२/ १२२// २२१२/१२२ (सारे जहाँ से अच्छा // हिंदोस्ता हमारा... बहर का नाम ज्ञानी लोग रटते रहें.. शाइर सिर्फ ग़ज़ल पर फोकस करें) पर बहुत आसानी से पढ़ी जा रही है और चूंकि अरूज में मात्रा गिराना जायज है इसलिए इसे बेबहर कहने वालों को अभी OBO पर और ट्रेनिंग लेना चाहिये.
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भाषा बड़ी/ है प्यारी // जग में अनो/खी हिन्दी,
चन्दा के जै/से सोहे// नभ में निरा/ली हिन्दी।......
इस बहर में पढने पर कई लोग यह भी कहेंगे कि काफ़िया को गिरा कर पढना दोषपूर्ण है लेकिन यह कई बड़े उस्तादों और शुरूआती शाइरी में देखा गया है (अभी उदाहरण देने की स्थिति में नहीं हूँ लेकिन वक़्त पर दूंगा ज़रूर) ..इससे बचना चाहिये लेकिन फिर..ग़ज़ल लिखने की नहीं पढ़ने की विधा है ...और पढ़ते समय कैसे पढना है ये शाइर तय करेगा ..
आप को बधाई
भविष्य में प्रयास करें कि अरकान के साथ सभी नियम जितना हो सकें पाले जाय ताकि लेखन और समृद्ध हो.
शुभभाव
जनाब समर कबीर साहब, आदाब,
जैसे तख्निक से मुत़कारिब मुसम्मन अस्लम मक्बूज़ मुखन्नक (22 122 22 122) हासिल की जाती है वैसे ही तख्निक से मुत़कारिब मुसद्दस अस्लम मक्बूज़ मुखन्नक (22 122 22) का हासिल करना भी अरूज़ के रू से मुमकिन है लेकिन अरूज़ की किसी किताब में इस बह्र का कोई जिक्र नहीं है. ऐसे में क्या इस पर लिखी ये ग़ज़ल बेबह्र मानी जायेगी या इसे स्वीकृति मिलना मुमकिन है?
क्या इस ग़ज़ल की बह्र का मुन्सरेह मुरब्बा मक्तूअ या मौकूफ मुजायफ़ होना मुमकिन है ?
सादर
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