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ग़ज़ल -- लिखूं सच को सच ये हुनर शेष है ( दिनेश कुमार )

122___122___122___12

लिखूँ सच को सच, ये हुनर शेष है
अभी रोशनाई में डर शेष है

क़दम उठ रहे हैं इकट्ठे मगर
दिलों के मिलन का सफ़र शेष है

बुझाओ न तुम शम्अ उम्मीद की
फ़क़त रात का इक पहर शेष है

भले उनकी दस्तार है तार तार
वो ख़ुश हैं कि काँधे पे सर शेष है

चमन में लगी आग, लगती रहे
मुझे क्या, अभी मेरा घर शेष है

दशहरा मनाने का क्या फ़ाइदा
बुराई का ख़ूँ में असर शेष है

जो हातिम सा इमदाद सबकी करे
जहाँ में कहाँ वो बशर शेष है

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 26, 2017 at 11:33am

आ. दिनेश जी 
.
चमन में लगी आग, लगती रहे
मुझे क्या, अभी मेरा घर शेष है.. सारा वार्तालाप यहीं समेट दिया आपने ..बहुत बधाई 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 26, 2017 at 10:32am
जनाब दिनेश कुमार साहिब ,सुन्दर गज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें
Comment by दिनेश कुमार on September 25, 2017 at 8:57pm
जी आ. समर साहब। एडिट करता हूँ। शुक्रिया
Comment by Samar kabeer on September 25, 2017 at 8:40pm
अब मिसरा ठीक है,ऐडिट कर दीजिए ।
Comment by दिनेश कुमार on September 25, 2017 at 8:16pm
शुक्रिया आ महेंद्र जी। इनायत आपकी।
Comment by दिनेश कुमार on September 25, 2017 at 8:01pm
बहुत मेहरबानी आ. समर साहब। मुहब्बत है आपकी, जोआपने ग़लती बताई।
मतले का सानी कुछ यूं किया है ----
अभी दिल के कोने में डर शेष है।
Comment by Mahendra Kumar on September 25, 2017 at 7:59pm

चमन में लगी आग, लगती रहे
मुझे क्या, अभी मेरा घर शेष है ...वाह! यही हो रहा है आजकल.

इस उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आ. दिनेश जी. सादर.

Comment by दिनेश कुमार on September 25, 2017 at 7:57pm
बहुत बहुत शुक्रिया आ सुरेंद्र जी। आभार
Comment by दिनेश कुमार on September 25, 2017 at 7:56pm
तहे दिल से शुक्रिया आ आरिफ़ साहब।
Comment by Samar kabeer on September 25, 2017 at 5:58pm
जनाब दिनेश कुमार जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के सानी मिसरे में 'रोशनाई'शब्द के साथ 'डर'क़ाफ़िया खटक रहा है,मुमकिन हो तो सानी मिसरा बदलने का प्रयास करें ।

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