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'मासूम पे इल्ज़ाम लगाना ही नहीं था'

मफ़ऊल मफ़ाईल मफ़ाईल फ़ऊलुम

सोई हुई ख़्वाहिश को जगाना ही नहीं था

ख़्वाबों में मेरे आपको आना ही नहीं था

बाग़ी है अगर तुझ से तो अब कैसी शिकायत

औलाद का हक़ तुझको दबाना ही नहीं था

वो होके पशेमान यही बोल रहे हैं

मासूम पे इल्ज़ाम लगाना ही नहीं था

सब,झूट यही कह के यहाँ बोल रहे थे

सच बोलने वालों का ज़माना ही नहीं था

बहरों की ये बस्ती है "समर" जान गये थे

फिर तुमको यहाँ शोर मचाना ही नहीं था

समर कबीर

मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on March 19, 2018 at 10:49pm

जनाब बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ ।

Comment by Samar kabeer on March 19, 2018 at 10:46pm

जनाब हर्ष महाजन जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 19, 2018 at 10:20pm

आ. समर सर,
ग़ज़ल के लिए बधाई 
मक्ता लाजवाब और सामयिक है ..
बहुत बहुत बधाई 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on March 19, 2018 at 5:10pm

वाह लाजबाब गजल हुई है, बधाई क़ुबूल फरमाएं 

Comment by Mohammed Arif on March 19, 2018 at 4:57pm

बाग़ी है अगर तुझ से तो अब कैसी शिकायत

औलाद का हक़ तुझको दबाना ही नहीं था वाह! वाह!! बहुत ही उम्दा और सच्चा शे'र.हुआ है ।

           शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब ।

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 19, 2018 at 4:27pm

वाह आदरणीय समर साहिब बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है। दिल से मुबारकवाद।

बहरों की ये बस्ती है "समर" जान गये थे

फिर तुमको यहाँ शोर मचाना ही नहीं था,,,, बहुत खूब

Comment by Harash Mahajan on March 19, 2018 at 3:15pm

वाह आ0 समर जी बिल्कुल वही ज़मीन ...बहुत ही खूब सर । काफियों का रखाव बहुत ही सुंदर किया है ओर सिंपल भी है । दाद ही दाद ।

सादर

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