आज भी कभी
जब उधर से गुजरता हूँ
उतर जाता हूँ
उस खास स्टेशन पर
टहलता हूँ देर तक
लम्बे प्लेटफार्म पर
बेसुध आत्मलीन
फिर चढ़ जाता हूँ रेलवे पुल पर
तलाशता हूँ वह् रेलिंग
वह ख़ास जगह
टटोलकर देखता हूँ
शायद वही जगह है
स्तब्ध हो जाता हूँ
लगता है कोई
सोंधी महक
सहसा उठी और
सिर से गुजर गई
नीचे आता हूँ
फिर पुल के नीचे
पुल के आधार पर
सीमेंट का चत्वर
इधर मै बैठा था
उधर-----
उस दिन मुझे माइग्रेन था
मैं कहीं लेटा था
खोजता हूँ वह बेंच
जिस पर आज भी शायद
होता होगा कोई स्पंदन
मेरी अनुभूति का
स्टेशन से सटा
हनुमान जी का मन्दिर
जहाँ हम दूर से मिलते थे
बैठते थे दरी पर
प्रायः वहां रहता था सन्नाटा
अब भी है वह महावीर विग्रह
जो साक्षी है
कुछ सरस अनुभूतियों का
कुछ सिहरन भरे अहसास का
फिर कौंधते हैं
बाहर मूगफली खरीदते
और फल की दूकान पर
उनकी सेहत आजमाते
कुछ दृश्य
और वह बरसता मेह
एक खास सौन्दर्य
खिले पाटल सा
वह लटों से निचोड़ती पानी
मेरे भाव-लोक की रानी
चोर दृष्टि से निहारती
वह उसकी आँखें
लौट आता हूँ फिर प्लेटफार्म पर
और टहलता हूँ
पटरियों के समानांतर
हाँ इसी जगह
मैंने अपने मित्र से कहा था
उसे नही ‘उसे’ सुनाते हुए
हम इन रेल की
दो समानान्तर पटरियों की तरह
साथ-साथ चल तो सकते हैं
पर मिल नहीं सकते
मै तलाशता हूँ
अपनी वह खोई आवाज
महसूस करता हूँ
नीले परिधान का आकर्षण
उसके सफेद दुपट्टे की तरह लहराता
अपने मन का सतरंण
दिखता नहीं मुझे अब वह प्याऊ
जहाँ खोया था
मेरा हरा रंगीन चश्मा
वह चाय की दूकान भी नहीं अब
जिसमें सुलगता रहता था
रेलवे का कोयला
बहुत कुछ बदला है
पर बाकी हैं अभी भी
ढेर से निशानियाँ
बहुत सी संवेदना
व्यथा को सहेजती अनगिनत पीडाएं
इसीलिये मन को खींचता है
यह अदना सा स्टेशन
और जब भी मै इधर से गुजरता हूँ
हठात उतर पड़ता हूँ ट्रेन से
असहज अनियंत्रित
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय गोपाल सर फ्लेश बैक के साथ कविता में बढ़िया कथा चित्र खींचा है हार्दिक बधाई
आदरणीय बड़े भाई , बहुत खूबसूरत लगी आपकी कविता , एक कहानी का भी मज़ा साथ मे लिया । आपको दिली बधाइयाँ ।
जीवन यात्रा में कुछ स्टेशन थे जहाँ रुक जाना चाहते थे, बस जाना चाहते थे ,पर अंतिम क्षणों में चलती ट्रेन में फिर चढ़ गए और आगे चल दिए , इन्हीं एहसासों को बहुत ही खूबसूरती से पिरोया है आपने अपनी रचना में आदरणीय , बहुत बधाई आपको ,सादर
हम इन रेल की
दो समानान्तर पटरियों की तरह
साथ-साथ चल तो सकते हैं
पर मिल नहीं सकते.
आ गोपाल नारायण जी ,
यह अतीत का प्रश्नचिन्ह आज भी वहीँ है। हम बड़े हो गए पर इस स्मृति शेष का क्या कहना ? यह तो शाश्वत सत्य की तरह आज भी जीवंत है. बधाई इस अतीत यात्रा पर।
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